पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/५७

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1 वार्ता में तुलसीदास सुनि आगमन :गोसाई को वृंदावन मो जाई ।

मिले पुलकि अति प्रेम ते, आनंद उर न समाइ ॥२॥

पद सुनाइ करि भेट तहँ, कियौ हाँस मुसकाइ । लीला कृष्ण बहुत करौ, राम अल्प गुंन गाइ ||३|| तब कर जोरि बिनै करयो, विवस बाल अर दास । तात मात सौंपहि जेहि, तेहि भजु तुलसीदास ॥४॥ प्रथमहि तुमही धरयो भम, नंददास. अस नाम । दसरथ दास न क्यों कयौ, रटते नित गुन ग्राम ॥५॥ दास जौन सरकार को, करि दीन्हो तुम भोहि । ताहि भनौं दृढ़ प्रेम करि, यहै कृपा अब होहि ॥धा सुनिः के अधिक प्रसन्य है, विपुल प्रसंसा कीन्ह । दिढ है भजन करौ संदा, बहु सिख आसिख दीन्ह ।।७।। [चरित्र, पृष्ठ २४-२५ ] विचारने की बात है कि यहाँ नंददास का स्वरूप-परिवर्तन' से कोई नाता नहीं। हाँ, इस 'हास' का गुरुभाई लगाव कुछ उससे अवश्य है । भवानीदास ने नंददास को तुलसीदास का कदाचित् "गुरुभाई ही माना है। कारण कि इस प्रसंग का नाम छपा है- अथ नंददास गुरभाई प्रसंग। और प्रारंभ में परिचय में लिखा है- कान्ह कुब्ज एक विप्र नगर फनउज ढिग बासी । श्रीगोसाई' गुरबंधु रहै श्रीकृष्ण उपासी ।। नंददास सुभ नाम स्वक्ष कृत पद जग गावै । और कुटुंबी बिप्र भक्त पर्छ देखि सतावै ।।