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युद्ध के बाद

सरकार ही भारतीयों का विरोध न करना चाहे तो कानून में

बिता किसी परिवर्तन के भारतीयों के नाम मत्-पु/क में लिखे जा सकते हैं। सावजनिक फानून में यही विशेषता है। इसो भकार अन्य भी कई उदाहरण उन कानूनों से लेऋर दिखाये जा

पकते हैं.जिन्हें पाठक पूषे अध्यायों मेंपढ़ गये हैं। इमलिए चतुर राजनीति तो वद्दी मानो जाती है. जो एकरेशोी कानून कम

से कम बनावे और वह राजनीति सबं-श्रे्ठ हैजो ऐसे कानून बिलकुल ही न बनावे। यदि एक बार कोई कानून बन जाता है,

तो उसे बदलना बहुत मुश्किल है। लोअमत अधिक तैयार होता हैतभो कोई कानून बदला जा सकता है। जिस प्रजातन्त्र को चार-बार अपने कानूनों को बदलना पढ़ता है वह राष्ट्र सुह्यवत्थित नहीं कहा जासकता।

अब ट्रान्सवाल मेंबताये गये एशियाटिक कानून की भर्य॑-

करता का अनुमान हम अधिक अच्छी तरह कर सकेंगे। वे तो

सभी फानून एकदेशी थे। “एशिया-निवासियों को मत देने का अधिकार नहों, सरकार की बतायी सीमा के बाहर वे जमीन नहीं खरीद सकते ” जबतक ये कानून रह न हो जायें, तबतक

चहाँके अधिकारीगण भारतीयों की कोई सहायता नहीं कर सकते थे। वे सावेजनिक न थे इसीलिए तो लाढ मिन्ननर की कमिटी उन्हें छाॉँटकर अलग कर सकी। पर इसके विपरीत यदि के सावेजनिक द्वोते तो अन्य कानूनों के साथ-स्ताथ ऐसे कानून भी

एशियानिवासियों के खिलाफ कोई प्रत्यज्ञ कटाक्ष न थे, पर उनके प्रतिकूल उनका उपयोग जरूर किया जा रहा था, रह हो जाते । अधिकारी लोग भो उस हाक्षत में ऐसा न कह सफते थे कि

  1. हम क्‍या कर सकते हैं,क्ञाचार हैं। जबतक धारासभा इन

कानूनों को रह नहों कर ढालती, तबतक तो उनपर हमें अमद्न रू

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