श्र
दक्षित अक्ियां सा सत्याप्रद
लिए भी थी। इसलिए यह तो इनमें इर्गिज्ञ नहीं हि सफता ण, ऊि येसत्याप्रदियों सेपंसे लगर गोरे व्यापारियों वा रण
अ्रदा फर दें। पर सम्याप्ठी व्यापाग्यों केसमान ही खस्य भारतीय भी इन मित्र थे, जिस्दोंनि रानी कानून के सामने सिर
भुझा दिया था। और मैं जानता हैंझ्िदनडी सद्दायता भी क्रादुलिया सेठ फो मित्न सपती थी। जहाँ तक सुझे याद है। एक दो मित्रों ने उन्हें इस विषय में फलाया भी था। १९
इनकी सहायता लेने का श्र्थ तो यही न पीता कि दमने ३
बात को स्वीकार फर लिया, कि सूनी फानून की मानने ही मेंवुर्दि-
मानी है। इसलिए हम दोनों इसी निश्चय पर पहुँचे कि इतरी
सहायता.
हमे फदापि स्वीकार नहीं करनी चाहिए। फिर
हम दोनो ने यह भी सोच कि यदि काउलियां अपने की नागर
कहलाएगे तो उनकी नादारी दूपरो के लिए ढान्न फा याम देंगी। क्योंकि अगर सौ मे पूरीमी नहीं तो निन्यानवे फी सदी सादारियों मे लेनदार को तुकसान उठाना पड़ता है। '्गर उनके हेने मेंसे फी सदी पचात्त भी मिल जाते हैं. तो भी वेखुश होते हूँ। जग्न
फीसदी पिचदत्तर मिल जाये तब तो वे उसीको पूरेसी दी मान
लेतेदूँ । क्योंकि दक्तिण अफ्रिफा में प्रतिशत ७) नहीं वल्कि फी सेकडा २४) सुनाफा लिया जाता है। इसलिए अपनी लेन मेंसे फी
संकड़ा ७५ मिलनेतक तो वे उसे घाटे का व्यवहार नहीं मानते |
किन्तु नादारी मे पूरा-पूरा तोशायद ही कभी मिलता है'। इसलिए कुकोई ल्षेनदार यह नहीं चाहता कि उसका कजदार दिवालिया जाय ।
_ इसलिए काहलिया का उदाहरण दिखा कर गोरे लोग दूसरे केक को घमकी नहीं देसकते थे। और हुश्रा भी ऐसा ही । चाहते थे कि फाछलिया को युद्ध से अपना द्वाथ ह॒टा लेने के