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दत्तिण अफ्रीका का सत्याम्रह्
को जेल में भेजना एक भयंकर वात है। फिनिक्स मेंरहने वाली अधिकांश धहने गुजराती थीं। इसलिए उन्हेंउन टू[सबाज् वाकी
बहनों के समान मुस्तेद और अ्रनुभवी नहीं कह सकते थे। फिर उनमे से कितनी ही तो मेरी रिश्तेदार ही थीं । इसलिए केवल
मेरे ल्षिद्दाज सेशायद वे जेल जाना मंजूर कर ले ओर यदि
चक्त पर घत्रंडा कर अथवा जेल में जाने बाद कष्टों से अछुला
कर माफी वगैरा। माँग लें तो मुझे कितना श्राधात पहुँचेगा?
लड़ाई एक-दम शिथिल हो जायगी; इत्यादि सभी वार्तों पर विचार
कर ज्ञेना जरूरी था। यह तो मेंने निश्नय ही कर लिया था कि अपनी पत्नी को तो मेंकभी नहीं ललचाऊँगा |एक तो वह लक्षचाने पर ना फह्दी नहीं सकती थी।ओऔर यदि हाँभर भी लेती तो मुझे यह निम्य नही था कि उस 'हाँ' को कितना महत्व दिया
जाय । ऐसे जोखिम के समय स्री अपने-आप जो काम करे उसी
को मंजूर कर लेना श्रयक्तर है । यदि बह कुछ न करे तो पति को
घुरा भी नहीं मानना चाहिए । यह सब मैं जानता था। इसलिए
मैने यह निश्चय फर लिया था कि अपनी पत्नी के साथ इस विषय
में कोई बात तक न कहें | अन्य बहनों के साथ मेने वात-चीत की । उन्होंने दा[सचाल की बहन की तरह फोरन वीडा उठा
लिया ओर सब जेल-यात्रा करने को तैयार होगई। उन्होंने नुझे
यह भी विश्वास दिलाया कि हर प्रकार के कष्ट झेल्न करके भी वे
जेत्-यात्रा पूरां करेंगी। इन सत्र बातों का सार मेरी पत्नी भी
जान गई और उसने मुक्त सेकह्ा--"भुझे दुख होता हैकि' आप भुझ से इस विषय से कोई बात-चीत क्यों नहीं करते , मुक में ऐसी कौनखामी है, जो मैंजेल न जा सहूंगी ! मुझे “« भी दह्दीप्रायक्ेता हैजिसके लिए आप इन बहनों को सलाद
रहेहैं |” मैने कद्दा “तेरे चित्त को ठुःख्री तो मैं कोसे