पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१५७

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धुआं तपन मांहि का धरा, धूम तपन ही त्याग। 'रविदास' मिलि है मोष धाम, सेवा ही तप आग ॥ 83 ॥ 'रविदास' जीव कूं मारि कर, कैसो मिलहिं खुदाय । पीर पैगम्बर औलिया, कोउ न कहइ समुझाय ॥ 84 ॥ बेगम पुरा – शोक रहित नगर । अंदोह – शोक । द्वेषभाव- वैरभाव द्वेषभाव। ठांम- स्थान | मनुष करि- मानव के । बसन कूं – रहने के लिये । स्वराज- स्वराज्य, स्वाधीन व्यवस्था । मरघट – श्मशान । धुआं तपन मंहि - धूनी रमा कर धुआं तापने में। का—क्या । मोष - मोक्ष । सेवा ही तप आग- यदि तापना ही है - - - तो सेवा रूपी आग ही तापनी चाहिए । कूं – को । औलिया - सिद्ध पुरुष, संत - महात्मा । 'रविदास' जो आपन हेत ही, पर कूं मारन जाई । मालिक के दर जाइ करि, भोगहि कड़ी सजाई ॥ 85 ॥ दया भाव हिरदै नहीं, भखहिं पराया मास । ते नर नरक मंहि जाइहि, सत्त भाषै 'रविदास' ॥ 86 ॥ पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत । 'रविदास' दास प्राधीन सों, कौन करे है पीत ॥ 87 ॥ ऐसा चाहौं राज मैं, जहां मिलै सबन कौ अन्न । छोट बड़ो सभ सम बसैं, 'रविदास' रहें प्रसन्न ॥ 8 ॥ आपन हेत- अपने लिए । कड़ी – सख्त, घोर । भखहिं— खाते हैं । प्राधीन - पराधीन । मीत - मित्र । 160 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास