पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१५६

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'रविदास' उपजड़ सभ इक नूर तें, ब्राह्मन मुल्ला सेख. सभ को करता एक है, सभ कूं एक ही पेख ॥ 75 ॥ 'रविदास' सोइ सूरा भला, जन लरै धरम के हेत। अंग अंग कटि भुइं गिरै, तउ न छांड़ै खेत ॥ 761 करि – की । पृथक भेद, फर्क। तेसउ — वैसे ही । को – का | करता - कर्त्ता, रचना करने वाला। - - -अलग । कंगन - कड़ा । कनक- सोना । अंतर- - - कूं—को। पेख–देखो, समझो । सूरा – शूरवीर । लरै –लड़े। छांड़ै –छोड़े। खेत – मैदान । जो बस राखै इंद्रियां, सुख दुख समझि समान । सोउ अमरित पद पाइगो, कहि 'रविदास' बखान ॥ 77 ॥ बुधि अरु बिबेकहि, जउ राखन चाहौ पास। इंदरियां संग निरत कौ, तजि देहु 'रविदास' ॥ 78 ॥ 8 कुरमे भांति जउ रहहिं, मन इंदिरिया 'रविदास' । सांत रहइ नित आत्मा, बढ़हि आतम बिसास ॥ 79 ॥ जो कोउ लोरै परम सुख, तउ राखै मन संतोष । 'रविदास' जहां संतोष है, तहां न लागै दोष ॥ 80 ॥ - अमररित पद-अमर पद । निरत कौ - नृत्य को । तजि देहु – छोड़ दो । - - इंदिरिया संग निरत को - इंद्रियों के वश में होकर इनके अनुसार ही चलते रहने को । कुरमे भांति–कछुए की तरह । लोरै – चाहे । - 'रविदास' जु है बेगमपुरा, उह पूरन सुख धाम । दुख अंदोह अरु द्वेषभाव, नांहि बसहिं तिहिं ठांम ॥ 81 ॥ 'रविदास' मनुष करि बसन कूं, सुख कर हैं दुइ ठांव । इक सुख है स्वराज मंहि, दूसर मरघट गांव ॥ 82 ॥ संत रविदास वाणी / 159