पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/२९

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है । इरफ़ान हबीब का कहना है कि मध्यकाल में सूचित तीव्र व्यापार और व्यापक उधर प्रचलन पर विचार करते हुए हमें कागज की नई उपस्थिति को ध्यान में रखना चाहिए। 14वीं शताब्दी तक नकदी में भुगतान व्यापक रूप से प्रचलित हो गया था। इतिहासकारों का मानना है कि भारत का तीसरा नगरीकरण गौर-तुर्कों के आक्रमण की बदौलत संभव हो सका। तुर्कों ने जब नगरों में प्रवेश किया तो निम्नवर्गीय कामगारों ने उनके साथ-साथ भीतर प्रवेश किया और वे वहीं बस गए. नए शासन को कामगार, उनके परिवार और उनकी कार्यशालाओं की नगर दीवारों के भीतर आवश्यकता थी । इन तथ्यों से अनुमान लगाया जा सकता है कि तुर्कों के इन व्यापक परिवर्तनों में शिल्पी और किसान वर्ग को पर्याप्त राहत दिखाई दी होगी। आत्मर्निभर ग्रामीण इकाइयों के टूटने से जाति प्रथा के बंधन ढीले हुए होंगे.... सामन्तीय संबंधों के ढीले पड़ने, नगरों के उत्थान और बाजार के लिए उत्पादन, नकदी के भुगतान आदि युगान्तकारी परिवर्तनों के समाज-सांस्कृतिक प्रभावों की अनुक्रिया-प्रतिक्रिया के तदनुरूप कबीर (अन्य संत) अपने साधुजन से संवाद स्थापित कर रहे थे। कबीर (संत) का यह साधुजन शिल्पी वर्ग था जो सामंतीय उत्पादन के जजमानी संबंधों से छुटकारा पाकर नगरों में नए रोजगार के तहत जुट रहा था । 10 भक्तिकाल की रचनाओं में हिन्दू और मुस्लिम के बीच कोई अन्तर्विरोध दिखाई नहीं देता। यहां कट्टरता-संकीर्णता व उदारता के बीच अन्तर्विरोध है। कबीर व संत रविदास धर्म के संस्थागत रूप व इस्लाम के संस्थागत रूप की आलोचना करते हैं। दोनों धर्मों के पाखण्डों पर प्रहार करते हैं और दोनों धर्मों के मानवीय तत्त्वों को उभारते हैं । साम्प्रदायिक दृष्टि इतिहास पर इतनी हावी है कि वे हिन्दुओं में व्याप्त तमाम बुराइयों का जिम्मा मुसलमानों पर थोंप कर छुट्टी पा जाती है। फिर चाहे पर्दा प्रथा हो या सती हो या बाल विवाह हो सबका कारण मुसलमानों का अत्याचार मान लिया जाता है और सामन्ती जीवन की वास्तविकताओं व अन्तर्विरोधों पर नजर नही जाती। सामन्तवाद साफ तौर पर बरी कर दिया जाता है। संदर्भ 1. के. दामोदरन; भारतीय चिन्तन परम्परा; पृ. 330 2. कुंवरपाल सिंह; 32 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास भक्ति आंदोलन : इतिहास और संस्कृति (भक्ति आंदोलन : प्रेरणास्त्रोत