पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/३१

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संत रविदास धर्म और साम्प्रदायिकता हिन्दू तुरुक नहिं कछु भेदा हिन्दी में मध्यकालीन संतों की वाणी को भक्ति आंदोलन के रूप में पढ़ा- पढ़ाया जाता है, और निर्गुण व सगुण धाराओं में विभाजित करके ऐसा दर्शाया जाता है मानो ईश्वर- आराधना को लेकर ही इनमें मतभेद थे । इस पर इतना जोर दिया जाता है कि ऐसा लगता है कि इन संतों और कवियों ने ईश्वर की उपासना को प्रचारित करने के लिए ही अपने काव्य की रचना की है। इसीलिए इनकी वाणी में मौजूद तत्कालीन समाज की स्थितियों की ओर कम ही ध्यान गया। इस बात को और आगे इस तरह बढ़ाया जाता है कि इनकी ईश्वर - उपासना इनके धर्म-रक्षा करने की रणनीति का हिस्सा थी। पूरे भक्ति आंदोलन को एक धार्मिक प्रतिक्रिया के रूप में पैदा होने का विचार काफी प्रचलित रहा है । यद्यपि भली प्रकार से विद्वानों ने इसे बार-बार तथ्यहीन व अवैज्ञानिक बताया है, लेकिन राजनीतिक विचारधारा व स्वार्थों के चलते यह अभी भी चेतना का हिस्सा बना हुआ है। रामचन्द्र शुक्ल ने यह कहा था कि मुस्लिम शासकों के आक्रमण से पस्त जाति ने भक्ति के रूप में शरण ली थी इसलिए भक्ति आंदोलन को मुस्लिम आक्रमण से रक्षा के तौर पर देखा गया । ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह मत खरा नहीं उतरता । विद्वानों ने इसके विपरीत कहा कि मुस्लिम आक्रमण तो उत्तर भारत में हुए, लेकिन भक्ति आंदोलन दक्षिण भारत से उत्पन्न हुई। इसके अलावा गौर करने की बात है कि निराशा व पराजय बोध से इतना जीवन्त साहित्य उत्पन्न नहीं हो सकता । निराशा व पराजय के साहित्य में तो पस्ती के चित्र ही मिल सकते हैं, जबकि भक्ति काल के साहित्य में तो जिजीविषा व संघर्ष के चित्र हैं। असल में यह विचार अपने समय के इतिहास बोध की उपज थी, राष्ट्र- आंदोलन के दौरान राष्ट्रवादी चेतना में समाप्रदायिक तत्त्व घुल मिल गए थे। अंग्रेजों 34 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास