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भूमिका

भारतीय इतिहास के मध्यकाल में नई तकनीकों के आगमन के कारण सामंती संबंधों में दरार पड़ने और नगरीकरण की प्रक्रिया के तीव्र होने से भक्ति-आंदोलन का उद्भव हुआ है। इस आंदोलन का नेतृत्व निम्न वर्गों से आए संतों और कवियों ने किया। भारतीय दर्शन की श्रमण परम्परा से अपने को संबद्ध करने वाला यह आंदोलन विस्तृत क्षेत्र में फैला। कबीर, रविदास, नानक, दादू, दरिया, धन्ना, रज्जब, पलटू, नामदेव आदि का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। सांस्कृतिक सम्मिश्रण से उपजे भक्ति-आंदोलन में निम्न वर्गों से ताल्लुक रखने वाले संतों ने जन-आकांक्षाओं व पीड़ाओं को अपनी वाणी में विशेष स्थान दिया।

संत रविदास का भारतीय इतिहास व साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने शोषित-पीड़ित-वंचित-दलित जनता की आकांक्षाओं को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया, जो इस जनता को प्रभावित करती रही हैं। संत रविदास व उनके समकालीनों ने अपने समय के मुख्य अन्तर्विरोधों को व्यक्त किया।

सामाजिक न्याय, सामाजिक बराबरी, साम्प्रदायिक सदभाव संत रविदास की वाणी का मूल स्वर है। धार्मिक संकीर्णता व संस्थागत धर्म की आलोचना करते हुए उन्होंने धर्म के मानवीय पहलू को उभारा। लोक भाषा को अपनाते हुए सांस्कृतिक वर्चस्व को चुनौती दी। साहित्य को जनता की दुख-तकलीफों व संघर्षों से जोड़ा। उनके ये मूल्य आज भी हमारे लिए प्रासंगिक हैं। दूसरी ओर निहित स्वार्थों के चलते उनके साहित्य को विकृत किया जा रहा है। संत रविदास को जाति विशेष तक सीमित करने के प्रयास हो रहे हैं।

भक्तिकालीन संतों ने शास्त्रों-धर्मग्रंथों की दैवी सत्ता को मानने से इनकार किया था। परम्परा के मूल्यांकन में उन्होंने मानवीय व्याख्याएं प्रतिपादित कीं और जहां ऐसा नहीं था वहां परम्परागत विचारधारा व उसके समर्थक-संवाहक ग्रंथों-शास्त्रों को सिरे से ही नकार दिया और इसके बरक्स उन्होंने अपने अनुभूत ज्ञान को स्थापित किया। तत्कालीन शासक वर्ग वेद शास्त्र का नाम लेकर जनता में ऊंच-नीच को व अंधविश्वास को बढ़ावा देता था। तत्कालीन परम्परावादी पुजारी-मुल्ला जुल्म व शोषण को शास्त्रों की विकृत व्याख्या करके वैधता प्रदान करते थे। वेद-

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