पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/७०

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का शिकार रहे। संत रविदास ने इस पीड़ा से छुटकारे के लिए मेहनत करने वाले वर्ग को सम्मान का दर्जा दिया। संत रविदास का संबंध समाज के ऐसे वर्ग से था जो मेहनत करके अपना पालन करता था। अपने अनुभव से ही उन्होंने सिद्धान्तों को निर्मित किया था। बिना श्रम के खाने को उन्होंने हेय समझा। उन्होंने श्रम को ईश्वर के बराबर का दर्जा दिया । जिहवां सों ओंकार जप, हत्थर सों कर कार राम मिलहिं घर आई कर, कहि 'रविदास' बिचार ॥

नेक कमाई जउ करहि, ग्रह तजि बन नंहि जाय । 'रविदास' हमारो राम राय, ग्रह मंहि मिलिंहि आय ॥ रविदास ने कहा कि जहां तक हो सके व्यक्ति को श्रम करके खाना चाहिए। श्रम की कमाई को रविदास ने नेक कमाई कहा जो कभी निष्फल नहीं जाती। रविदास ने जहां इसकी ओर संकेत किया कि समाज में बिना श्रम के खाने वाले भी हैं, वहीं इसे बड़ी हेय दृष्टि से देखा और इसे बड़ा निकृष्ट कर्म माना । 'रविदास' स्रम करि खाइहि, जौ लौं पार बसाय । नेक कमाई जउ करइ, कबहुं न निहफल जाय ॥ संत रविदास ने श्रम को ईश्वर के बराबर दर्जा दिया जिसका अर्थ है कि श्रम करने वालों को समाज में उच्च स्थान पर बिठाना । अभी तक 'पोथी', 'तप', माला अपने को ही पूजा के तौर पर लिया जाता था और इसका प्रभाव यह होता था कि शारीरिक श्रम करने वाले को हेय नजर से देखा जाता था, जो उनके सामाजिक- आर्थिक शोषण को वैधता देता था । श्रम को सुख-चैन का आधार बताया । संत रविदास ने इस सच्चाई को भांप लिया था कि जो व्यक्ति बिना श्रम के संसार के ऐश्वर्य का आनंद उठाता है वह कहीं न कहीं सुख से वंचित रहता है। स्रम कउ ईसर जानि कै, जउ पूजहि दिन रैन । 'रविदास' तिन्हहि संसार मंह, सदा मिलहि सुख चैन 11

प्रभ भगति स्त्रम साधना, जग मंह जिन्हहिं तिन्हहिं जीवन सफल भयो, सत्त भाषै 'रविदास'

संत रविदास श्रम की महिमा / 73