पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/६९

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संत रविदास : श्रम की गरिमा श्रम मनुष्यता का आधार है, श्रमशीलता के कारण ही मनुष्य अन्य प्राणियों से अधिक विकास करने में सफल हुआ है। श्रम ने मनुष्य की शारीरिक-मानसिक संरचना को प्रभावित किया । श्रम ही मानव को सृजक के पद पर बिठाता है। श्रम के शोषण के लिए ही समाज वर्गों में विभाजित हुआ। समस्त दर्शन, धर्म, अर्थ की व्याख्याएं अन्ततः श्रम के आधार पर विभाजित श्रेणियों के तर्क विचार का काम करती हैं । संत रविदास मेहनतवश वर्गों से ताल्लुक रखते थे, उन्होंने उनके उत्थान के लिए वैचारिक संघर्ष किया। रविदास की भक्ति, धर्म व ज्ञान की अवधारणा का आधार श्रम था। श्रमहीन 'शुद्ध-ज्ञान' व 'भक्ति-उपासना' शोषक - शासक वर्गों का विचार हो सकता है, श्रमशील वर्ग का नहीं । डा. सेवा सिंह ने लिखा कि 'शुद्ध ज्ञान का सरोकार उस परजीवी वर्ग से था जो श्रमजन्य कर्मों से मुक्त था । गीता का निष्काम कर्मयोग भी इसी विशिष्ट सुविधा सम्पन्न श्रेणी की समझ में आ सकता था, जो श्रमिकों के अतिरिक्त उत्पादन की लूट से इस प्रकार के विचारवादी दर्शन की परिकल्पना में सक्षम भी थी और अपनी इस लूट की न्यायोचितता बनाये रखने के लिए उसे इसकी जरूरत भी थी । इस ज्ञान को वायवी, सूक्ष्म, पारलौकिक और अस्तित्व रहित मोक्ष से जोड़ दिया गया । वर्ण-धर्म का पालन भी इसी मोक्ष से सम्बद्ध है। शूद्रों की इस ज्ञान तक पहुंच नहीं हो सकती, क्योंकि उन्हें ज्ञान प्राप्त करने के अधिकार से मूल रूप में ही वंचित कर दिया गया था।" शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था में बिना श्रम किए खाने वाले तो सम्मान पाते हैं और जो मेहनत करते हैं वे अपमानित होते हैं। जो जितनी अधिक मेहनत करता है, वह उतना ही पीड़ित होता है, उसका उतना ही अधिक शोषण होता है। दलित हमेशा समाज के निचले पायदान पर रहे, इसलिए वे उच्च वर्ण के श्रेष्ठता- दम्भ का 72 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास