पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/७२

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संत रविदास : आजादी व कल्याणकारी राज्य मानव-समाज किसी न किसी व्यवस्था को अपनाकर ही चल सकता है। जब तक समाज में समानता नहीं हो जाती, तब तक मानव समाज सुख व शांतिपूर्ण ढंग से नहीं रह सकता । समाज में समानता का खात्मा तभी से हो गया जब कुछ स्वार्थी लोग अपने ऐश्वर्य के लिए समाज के अन्य लोगों के हिस्से की सामग्री का प्रयोग करने लगे और अधिक से अधिक प्राप्त करने के लिए कई तरह की तिकड़में लड़ानी शुरू की। इस प्रयास में सम्पत्ति के व ज्ञान के तमाम स्रोतो पर अपना वर्चस्व स्थापित करके शक्तिशाली बनते गए। लेकिन जिन लोगों के हिस्से में सिर्फ मेहनत करना आया और उसके फलों से उनको यह कहकर वंचित कर दिया कि 'कर्म करो, फल की इच्छा न करो', उसके मन में भी समाज में बराबरी पाने की कसक रही, जो बार-बार इस वर्ग से ताल्लुक रखने वाले लोगों से आए विद्वानों और चिन्तकों ने अपनी वाणी और लेखन में प्रमुखता से उठाया। कल्याणकारी राज्य यद्यपि आधुनिक काल से पहले शासन की लोकतांत्रिक प्रणाली तो नहीं थी, कि जनता की इसमें कुछ सीधा हस्तक्षेप होता, लेकिन फिर भी उसकी अपेक्षाएं तो शासकों से रही हैं, जिसे जनकवियों ने अपनी रचनाओं में कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप में व्यक्त किया है। ऐसा चाहों राज मैं, जहां मिलै सबन कौ अन्न । छोट बड़ो सभ सम बसैं, 'रविदास' रहें प्रसन्न ॥ असल में ये केवल रविदास के ही नहीं, बल्कि उस पूरे वर्ग के विचार हैं, जिससे संत रविदास ताल्लुक रखते थे और जिसका प्रतिनिधित्व करते थे। संत संत रविदास : आजादी व कल्याणकारी राज्य / 75