पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/७३

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रविदास को अपनी प्रसन्नता की उतनी चिन्ता नहीं थी, जितनी कि समस्त पीड़ितों- वंचितों की। असल में संत रविदास की प्रसन्नता तो सबकी प्रसन्नता में ही निहित है। राज से उनका अर्थ असल में मात्र शासन व्यवस्था से नहीं है, बल्कि समय से है, काल से है, व्यवस्था से है। भारतीय मानस इसी तरह अपनी आकांक्षा को अभिव्यक्त करता रहा है । "रविदास एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं, जहां ऊंच-नीच और दुख- दर्द नहीं हो, पूरा न्याय हो और सब एक-दूसरे के मित्र हों । इसको वह बेगमपुरा का नाम देते हैं। " " रविदास ने बेगमपुरा नगर की कल्पना करके अपनी समाज के प्रति सोच को उजागर किया है। बेगमपुरा की कल्पना असल में एक फैटेंसी की तरह है। ऐसा नगर शायद ही दुनिया में कहीं मौजूद हो, लेकिन संत रविदास के मन व चेतना में उसकी स्पष्ट छवि है । बेगमपुरा सहर को नाउ । दुखु अंदोहु नहीं तिहि ठाउ । नां तसवीस खिराजु न मालु । खउफु न खता न तरसु जवालु ॥ अब मोहि खूब वतन गह पाई । ऊहां खैरि सदा मेरे भाई । (रहाउ ) काइमु दाइमु सदा पातिसाही । दोम न सेम एक सो आही । आबादानु सदा मसहूर ऊहां गनी बसहि मामूर ॥ तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै । महरम महल न को अटकावै । कहि रविदास खलास चमारा । जो हम सहरी सु मीतु हमारा ॥ संत रविदास ने जिस तरह के शहर की कल्पना की है, उस तरह से शायद ही किसी संत-भक्त या अन्य दार्शनिक ने की हो । वे मनुष्य को हर प्रकार के कष्ट से मुक्त देखना चाहते हैं। उनके दिमाग में एक न्यायपूर्ण समाज की कल्पना है, जिसमें कोई ताकतवर कमजोर न सताए, अपने बल का प्रयोग करके उसका जीना दूभर न कर दे। ताकतवर और कमजोर एक दूसरे के साथ सह-अस्तित्व के साथ रह सके न कि एक-दूसरे की कीमत पर 76 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास