पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/८२

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हैं और उन्हें 'साधो' कहते हैं तो उनके संबोधन में एक शिक्षक की सी विनम्रता व गंभीरता आ जाती है। संत रविदास ने पण्डों - मुल्लाओं की ओर ध्यान न देकर अपने आस-पास के लोगों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखा, इसलिए उनके काव्य में कबीर का सा साहस भी नजर नहीं आता और जुझारूपन भी नहीं । शायद इसी कारण कबीर के मुकाबले में संत रविदास की कविता रेडिकल किस्म के पाठकों को प्रभावित नहीं कर पाई । संत रविदास और कबीर में कोई मूल अन्तर नहीं है, न ही विचारों में और न मंतव्यों में । अन्तर केवल फोकस का है। कबीर पण्डों- मुल्लों को चुनौती देते हैं, लेकिन रविदास जन सामान्य को समझाते हैं, इसलिए उसमें अतिरिक्त जोश की जरूरत नहीं है । पहिले पहरै रैन दे बनिजरिया, तैं जनम लिया संसार बे ।

1. 2. भाई रे मन सहज बंदो लोई, बिन सहज सिद्धि न होई । लौलीन मन जो जानिये, तब कीट भृंगी होई ॥ आपा पर चीन्हें नहीं रे, औरों को उपदेस । कहां से तुम आयो रे भाई, जाहूगे किस देस ॥ कहिये तो कहिये काहि कहिये, कहां कौन पतिआई । रैदास दास अजान वै करि, रह्यो सहज समाई ॥ संत रविदास की कविता काव्यशास्त्र का बंधन नहीं मानती। वह लोक जीवन के बीच से अपनी अभिव्यक्ति कर रास्ता बनाती है। उनकी कविता में लोकगीत की सी मिठास मौजूद है। इस मिठास के कारण ही उनकी रचनाएं दलित- पीड़ित समाज में गाई जाती रही हैं। संत रविदास की कविताओं की भाव भूमि तो दलित- शोषित की है, उनकी कविताओं का शिल्प भी उनके निकट है, जो उनसे रिश्ता कायम करने में बाधा नहीं बना, बल्कि सकारात्मक रूप से मदद की। संदर्भ कंवल भारती; संत रैदास- एक विश्लेषण; पृ. -78 रामानन्द शास्त्री; संत रविदास और उनका काव्य; पृ. - 91 संत रविदास : जनकविता का सौंदर्य / 85