पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/८४

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संत रविदास वाणी पद दुलभ जनमु पुंन फल पाइओ बिरथा जात अबिबेके । राजेंइन्द्र समसरि गृह आसन बिनु हरिभगति कहहु किह लेखै ॥ 1 ॥ न बीचारिओ राजा राम को रसु । जिह रस अन रस बीसरि जाही ॥॥ ॥ रहाउ ॥ जानि अजान बए हम बावर सोच असोच दिवस जाही। इंद्री सबल निबल बिबेक बुधि परमारथ परवेस नहीं ॥ 2 ॥ कहीअत आन अचरीअत अन कछु समझ न परै अपर माइआ । कहि रविदास उदास दास मति परहरि कोप करहु जीअ दइआ ॥ 3 ॥ दुलभ–दुलर्भं। पुंन–पुण्य, नेक काम । बिरथा - व्यर्थ । समसरि-सदृश, समान । अन रस – अन्य रस, विषय भोग आदि । बावर- बावला, पागल । अचरीअत - आचरण करते हैं । पहिले पहरै रैन दे बनिजरिया, तैं जनम लिया संसार बे । सेवा चुकी राम की, तेरी बालक बुद्धि गंवार बे ॥1॥ बालक बुद्धि ने चेता तूं, भूला माया जाल बे । कहा होइ पाछे पछिताये, जब पहिले न बांधी पाल बे ॥ 2 ॥ ना, थांभि न सक्का भाव बे। बीस बरस का भया संत रविदास वाणी / 87