पृष्ठ:दासबोध.pdf/१५

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है दासबोध। । खिलाड़ी और चपल होते हैं वे आगे, अवस्था के कुछ प्रौढ़ होने पर, बड़े प्रतिभाशाली निक- लते हैं । समर्थ के विषय में भी यह अनुमान बहुत मिलता है। पाँचवें वर्ष में सूर्याजीपन्त ने उनका यज्ञोपर्वात बड़ी धूमधाम के साथ किया । यज्ञोपवीत के बाद उनके पिता ने उनकी शिक्षा के लिए एक वैदिक ब्राह्मण नियत किया। समर्थ ने उसी नाश्मण के पास, अपने घर में रह कर, उत्तम अक्षर लिखना, निल नैमित्तिक कर्म और कुछ संस्कन का अभ्यास किया। उन्हीं दिनों में उनके पिता सूर्याजीपन्त का खर्ग- वास हो गया। दोनों भाइयों ने पिता का उत्तन्कार्य किया। उस समय से समर्थ के ज्येष्ठ बन्धु गंगाधर उपनाम " श्रेष्ठ उनके विद्याभ्यास में दृष्टि रखते थे। समर्थ के ग्रन्यों को देख कर यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता कि वे संस्कृत के पूर्ण पंडित थे; तथापि “उपनि- पद् और भागवन के समान कठिन अन्यों से चे अच्छी तरह परिचित थे। इस बात का उद्देख उन्होंने अपने " दासबोध" नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ में, पहले दशक के पहले ही समास में, किया है। उनके अञ्चयन के सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि, उन्हें संस्कृत का अभ्यास अच्छी तरह समझने भर का ज्ञान अवश्य था। इसके सिवा, उनका बहुश्रुत अगाध था। समर्थ रामदासखामी यो नो बालपन है। से भगवद्भक्त थे; पर पिता के देहान्त होने पर उनमें और भी अधिक विक्ति आ गई । समर्थ के ज्येष्ठ वन्धु श्रेष्ठ का उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। महाराष्ट्र के लोग जिस प्रकार समर्थ को हनुमान का अवतार मानते हैं उसी प्रकार उनके ज्येष्ठ वन्धु को वे सूर्य का अवतार समझते हैं। श्रेष्ठ भी, अपनी वंश परम्परा के अनुसार, श्रीराम के भक्त और उपासक थे। वे भी अनेक लोगों को मंत्रोपदेश देकर भक्तिमार्ग में प्रवृत्त करते थे। एक बार एक मनुष्य उनके पास मंत्र लेने के लिए आया । श्रेष्ठ ने अनुग्रहपूर्वक उसे मंत्रदीक्षा देकर भक्तिमार्ग का उपदेश दिया। यह देख कर समर्थ अपने बन्धु से कहने लगे कि, हमें भी आप मंत्र दीजिए । उनके धन्धु ने उत्तर दिया कि, आपका वय अभी छोटा है। मंत्रोपदेश के लिए जो पात्रता चाहिए वह अभी आपमें नहीं है । इस प्रकार का उत्तर सुन कर समर्थ अपने ग्राम के बाहर, गोदावरी के किनारे, हनुमान के मन्दिर में जाकर उनकी प्रार्थना करने लगे। कहते हैं कि, उनकी भक्ति और निष्ठा देख कर हनुमानजी ने, उनके ऊपर क्या करके, दर्शन दिये और कहा कि, आप अभी मंत पाने के लिए इतनी शीघ्रता क्यों करते हैं। परन्तु जव समर्थ ने उपदेश देने के लिए बहुत आग्रह किया तव हनुमानजी ने उन्हें वहीं रामचन्द्रजी का दर्शन कराया। रामचन्द्रजी ने उन्हें " श्रीराम जय राम जय जय राम" इस प्रयोदशाक्षरी मंत्र का उपदेश दिया और आज्ञा दी कि, " सारी पृबी में यवन छाये हुए हैं । अनीति का राज्य है, दुष्ट लोग अधिकारमद से मतवाले होकर साधुओं को सता रहे हैं। धर्म का हास हो रहा है, इस लिए आप वैराग्य- वृत्ति से कृष्णा-तीर रह कर उपासना और ज्ञान की वृद्धि करके, लोकोद्धार करें।" इस प्रकार ,