पृष्ठ:दासबोध.pdf/१८५

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दालवोध। दशक. ४ है और ब्रह्मशृंग का नाम सत्यलोक है, तथा इन्द्र का स्थल, जिसका.नाम अमरावती है, उन तीनों के बाद है ॥ १३ ॥

वहां गण, गंधर्व, लोकपाल, तेंतीस करोड़ देवता, इत्यादि, सब निवास

करते हैं-इसी प्रकार चौदह लोक सुवर्णाचल (मेरु) को घेरे हुए हैं ॥१४॥ वहां स्वर्ग-लोक में कामधेनुओं के मुंड के मुंड हैं, कल्पतरु के अनेक वन हैं और अमृत के सरोवर ठौर ठौर में उमड़ रहे हैं ॥१५॥ वहां चिन्तामाणि, हीरा, और पारस की बड़ी बड़ी खानियां हैं तथा सुवर्णमयी धरती चमक रही है ॥ १६ ॥ वहां परम रमणीय प्रकाश फैला हुआ है, नवरत्नों की पाषाण-शिलाएं लगी हैं और निरन्तर अानंद या हर्ष छाया रहता है ! ॥ १७ ॥ वहां अमृत के भोजन हैं, दिव्य सुगन्ध छाई रहती है, दिव्य पुष्प खिले रहते हैं और अष्टनायका तथा गंधर्व सदा गान किया करते हैं ॥ १८ ॥ वहां युवावस्था का नाश नहीं होता, रोग और व्याधियां भी नहीं होती और बुढ़ापा या मरण कभी नहीं पाता ॥ १६ ॥ वहां एक से एक सुन्दर हैं; एक से एक चतुर हैं; और बड़े बड़े धीर, उदार और शूर हैं ॥ २० ॥ वहां के दिव्यदेह निवासी विद्युल्लता के समान ज्योतिस्वरूप हैं। उनके यश, कीर्ति और प्रताप की सीमा नहीं हैं ॥ २१ ॥ ऐसा वह स्वर्गभुवन बना हुआ है वह सम्पूर्ण देवताओं का निवासस्थल है, उसकी महिमा जितनी कही जाय, थोड़ी है ॥ २२ ॥ 'यहां जिस देवता का भजन करते हैं, स्वर्ग में उसी देवता के लोक से वाल मिलता है-यही सालोक्य मुक्ति का लक्षण है ।। २३ ॥ यदि लोक में रहे तो उसे सालोक्य मुक्ति और समीप रहे तो उसे सामीप्य मुक्ति तथा देवता के स्वरूप में हो जाय तो उसे सारूग्य (तीसरी मुक्ति) कहते हैं ॥ २४ ॥ सारूंप्य मुक्ति का लक्षणं यह है कि प्राणी देवरूप तो हो जाता है; परन्तु श्रीवत्सलांछन, कौस्तुभमणि और लक्ष्मी उसे नहीं मिलती ॥ २५ ॥ जब तक सुकृत-संचय रहता है तब तक प्राणी तीनों सुक्तियां भोगते हैं और उसके समाप्त होते ही ढकेल दिये जाते हैं, तथा देवता लोग स्वयं जैसे के तैसे बने रहते हैं ! ॥२६॥ अतएव ये तीनों मुक्तियां नाशवान् हैं, अविनाशी केवल सायुज्य मुक्ति ही है ॥ २७ ॥ झाल्पांत में ब्रह्मांड का नाश हो जायगा, सुमेरु पर्वतसहित पृथ्वी भस्म हो जायगी, उस समय जब देवता ही नष्ट हो जायंगे तब उक्त तीनों मुक्तियां बैले रह सकती हैं ? ॥ २८ ॥ तव तो केवल निर्गुण परमात्मा रह जाता क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति-सीता । .