पृष्ठ:दासबोध.pdf/२५१

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सातवाँ दशक । पहला समास-माया की खोज । ॥ श्रीराम ॥ विद्यावन्तों के पूर्वज, गजानन, एकदन्त, चतुर्भुज, त्रिनयन (?) और परशुपाणि श्रीगणेशजी को नमस्कार करता हूं ॥१॥ जिस प्रकार कुबेर से धन, वेद से परमार्थ और लक्ष्मी से सौभाग्य प्राप्त होता है, उसी प्रकार आदिदेव मंगलमूर्ति श्रीगणेशजी से सकल विद्याएं प्राप्त होती हैं। उन्हीं विद्याओं के द्वारा लोग कवि, पंडित, सन्त, साधु, इत्यादि बनते हैं ॥२-३॥ जिस प्रकार धनवान् पुरुप के बच्चे, नाना प्रकार के अलंकारों से, सुन्दर जान पड़ते हैं, उसी प्रकार मूलपुरुष (गणेश) ही के द्वारा कवि लोग व्युत्पन्न बनते हैं ॥ ४ ॥ जिन विद्याप्रकाश, पूर्ण चन्द्र गणेशजी के द्वारा बोधसमुद्र उमड़ने लगता है, उनको मैं नमस्कार करता हूं ॥ ५ ॥ वे कर्तृत्व का आरंभरूप है, वे मूलपुरुप और मूलारम्भ हैं, वे परात्पर है और श्रादि अंत में स्वयंभु है ॥ ६ ॥ जिस प्रकार सूर्य से मृगजल चम- कता है उसी प्रकार श्रीगणेशजी से इच्छा-कुमारी सरस्वती प्रकट होती है ॥ ७ ॥ उस मायारूपी शारदा को जो मिथ्या कहते हैं उन्हें भी वह धोखा देती है-वह अपने मायावीपन से मोह लेती है और उन्हें पर- मात्मा से भिन्न प्रकट करती है-(अर्थात् वक्ता, ब्रह्म का निरूपण करने के कारण, ब्रह्म से भिन्न होता है ) ॥ ८॥ वह द्वैत की जननी है, अथवा यो कहिये कि वह अद्वैत की खानि है और मूलमाया के रूप में अनंत ब्रह्मांडों को घेरे हुए है ॥ ६ अथवा वह औदुम्बर (गूलर ) का वृक्ष है, जिसमें अनन्त ब्रह्मांड, गूलर-फल की तरह, लगे हुए हैं ! अथवा पुत्री- रूप से वह मूलपुरुप की माता है ! ॥ १० ॥ वह वेदमाता और आदि- पुरुप की सत्ता 1 उसकी मैं वन्दना करता हूं ॥ ११ ॥ अब उस समर्थ सद्गुरु का स्मरण करता हूं, कि जिसकी कृपादृष्टि से ऐसी आनन्द की वृष्टि होती है, जिससे सम्पूर्ण सृष्टि श्रानन्दमय हो जाती है ॥ १२ ॥ वह आनन्द का जनक है; सायुज्य मुक्ति का नायक है; कैवल्य-पद-दायक है और अनाथों का बन्धु है ॥ १३ ॥ जिस. प्रकार चातक, मेंघ की ओर दृष्टि लगाये, बून्दों के लिए रटा करता है उसी प्रकार मोक्ष की इच्छा रखनेवाला साधक, जब सद्गुरु में भक्ति रख कर