पृष्ठ:दासबोध.pdf/२५६

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समास २] ब्राह्म-निन्नपण। १७५ ब्रह्म का वर्णन करने में वाचा कुंटित होती है और मन के द्वारा भी वह ममाप्य है-अर्यात् मन भी उसे प्राप्त नहीं कर सकता ॥ १०॥ मन कल्पनारूप और ब्रह्म में कल्पना नहीं फिर मन उसे कैसे पा सकता है? अतएच, उपर्युक्त श्रुतिवाक्य यथार्थ है ॥ ११ ॥ चव यदि कहोगे कि जो मन को अप्राप्य है, वह कैसे प्राप्त हो सकता है. तो इसका उत्तर यही है. कि सद्गुरु के बिना यर काम नहीं हो सकता ।। १२॥ भांडार- गृह तो भरे तप है; परन्तु ताले बन्द है-और जब तक हाथ में कुंजी नहीं आती तब तक कुछ नहीं प्राप्त होता ||१३॥ इस पर श्रोता वक्त से पूछता है कि " तो फिर वह कुंजी कौन सी है, मुझे बतलाइये न ?” ॥ १४ ॥ बना कहता है:-सद्गुरु की कृपा ही कंजी है। उससे बुद्धि प्रकाशित होती है और द्वैत के कपाट एकदम ग्युल जाते हैं ॥ १५ ॥ उस परब्रह्म में सुख का पारावार नहीं है। परन्तु वहां मन की गति नहीं है-इस लिए, मनोलय किये बिना, वहां कोई साधन काम नहीं देते ॥ १६ ॥ मन के बिना ही उसकी प्राप्ति हो सकती है अथवा या कहिये कि, वहां वा- सना के बिना ही तृप्ति है और वहां कल्पना की चतुराई नहीं चल सकती ॥ १७ ॥ वद परा वाणी से भी परे है। मन-बुद्धि से अगोचर है और सर्व- संग-परित्याग करने से वह सत्वर मिल जाता है ॥ १८ ॥ 'अपना' संग छोड़ कर, फिर उसे देखना चाहिए ! जो अनुभवी होगा, वह इस बात से सुखी होगा!! ॥ १६ ॥ 'मैं'-पन को 'अपना' कहते हैं, 'जीवपन' को मैं-पन ' कहते हैं और 'अज्ञान ' को 'जीवपन' कहते हैं-इसी अज्ञान का संग प्राणी में लगा हुया है ! ॥ २० ॥ अज्ञान-संग को छोड़ने पर निःसंग (ब्रह्म) से एकता होती है-यही, कल्पना बिना, ब्रह्म- प्राप्ति का अधिकार है ॥ २१॥ "मैं कौन हूं" यह न जानने का नाम 'अज्ञान' है-इस अज्ञान का नाश होने पर परब्रह्म मिलता है ॥ २२ ॥ देह- बुद्धि का बड़प्पन परब्रह्म के सामने नहीं चल सकता-वहां तो अहंभाव का अंत ही हो जाता है ॥ २३ ॥ वहां ऊंच-नीच का भेद नहीं है-उसके तई राव रंक एक ही समान हैं; चाहे पुरुष हो, चाहे स्त्री हो-सब को एक ही पद है ॥ २४ ॥ ब्राह्मण का ब्रह्म शुद्ध है और शूद्र का ब्रह्म अशुद्ध है-ऐसा भेदाभेद वहां है ही नहीं ! ॥ २५ ॥ यह भेद भी वहां बिलकुल नहीं है कि, ऊंचा ब्रह्म राजा के लिए है और नीचा ब्रह्म प्रजा के लिए है ! ॥ २६ ॥ सब के लिये एक ही ब्रह्म है-वहां अनेकत्व नहीं है। चाहे कोई रंक मनुष्य प्राणी हो, चाहे ब्रह्मा विष्णु महेश श्रादि देवता हो-सव उसीकी ओर जाते हैं ॥ २७ ॥ स्वर्ग, मृत्यु और पाताल तीनों लोकों के -