पृष्ठ:दासबोध.pdf/३८०

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नमा निद्धान्त-निरूपण। ना करती ने और नाना सुखदुःखों को पहचानती है-अतएव, उसे नानाही या अन्तरात्मा भी कहते हैं ॥ २६ ॥ उसीको अात्मा, अन्त- गन्मा. शिवात्मा, चैतन्य, सर्वात्मा, सूक्ष्मात्मा, जीवात्मा, शिवात्मा, रमामा, ऋष्टा साज्ञी और सत्तारूप कहते हैं ॥ ३० ॥ यही विकारी शानदात्मा) विकार ( दृश्य सृष्टि) में रह कर अहंड रीति से नाना कान के विकार किया करता है और इसीको मूर्व लोग 'वस्तु । या पब्रह्म समझते हैं ॥३१॥ सत्र (चंचल और निश्चल ) को एक भी समान समझना-सारा एकंकार करना-यह जो मायिक स्थिति है सो जिम उन्ली चंचल अविद्यामाया के कारण से है ॥ ३२ ॥ परन्तु वास्तव में, चंचल और मिथ्या माया अलग है और अचल तथा शाश्वत परब्रह्म अलग है-दसीको जानने के लिए नित्यानित्य-विवेक की आवश्यकता होती है ॥३३॥ जो जीव जानता है वह सज्ञान है, जो नहीं जानता वह -सामान जी जन्मता है वह वासनात्मक है ॥ ३४ ॥ तथा जो जीव ब्रम नल्य पाया हुआ है वह ब्रह्मांश है । उसके तई पिंड और ब्रह्मांड, दोनों का निरसन हो जाता है । यही चार जीव हैं ॥ ३५॥ अन्तु । ये सारे चंचल हैं और जितना कुछ चंचल है वह सब नश्वर है। और जो निश्चल है वह आदि-अंत में निश्चल ही है ॥३६॥ वह 'वस्तु' श्रादि, मध्य और अन्त में समसमान है, तथा निर्विकारी, निर्गुण, निर- ञ्जन, निन्संग और निष्प्रपंच है ॥ ३७ ॥ उपाधि का निरास हो जाने पर वास्तव में जीवशिव की एकता हो जाती है; परन्तु विचार करके देखने पर उपाधि कुछ है ही नहीं ॥ ३८ ॥ अस्तु । जितना कुछ जानना है उतना सब ज्ञान है; परन्तु परब्रह्म में अनन्य हो जाने पर इस ज्ञान का विज्ञान हो जाता है और मन उन्मन हो जाता है। उस उन्मनी दशा को मन से कैसे पहचान सकते हैं ? ॥ ३६॥ वृत्ति को निवृत्ति नहीं मालम होती, गुण को निर्गुणप्राप्ति कैसे हो सकती है ? साधक विवेक से गुणा- तीत होकर सत्स्वरूप को प्राप्त करते हैं ॥ ४० ॥ श्रवण से मनन श्रेष्ट होता है। क्योंकि मनन से सारासार मालूम होता है और फिर उसके बाद निदिध्यास से निस्संग 'वस्तु ' का साक्षात्कार होता है ॥ ४१ ॥ निर्गुण में अनन्यता होना ही सायुज्य मुक्ति है । वहां लक्ष्यांश वाच्यांश 1