पृष्ठ:दासबोध.pdf/४००

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समास ३] ईश्वर और भत्ता । ३२१ . चंचल और जड़ यह सारा माया का पवाड़ा है; पर इन सब में वस्तु ही सार है: उसका नाश नहीं है ॥ ८ ॥ उस परब्रह्म को ढूंढना चाहिए, विवेक से तीनों लोक में घूम फिरना चाहिए और मायिक का विचार से खंडन कर डालना चाहिए ॥६॥ खोटा छोड़ कर खरा लेना चाहिए । परीक्षावान् को परीक्षा करना चाहिए और माया का सारा रूप मायिक या मिथ्या जानना चाहिए ॥१०॥ यह माया पंचभौतिक है । जितना कुछ मायिक है सब लय हो जायगा। पिंड-ब्रह्मांड और आठो देह नाश- बंत हैं ॥ ११ ॥ जितना कुछ दिखेगा उतना सब नाश होगा; जितना कुछ उपजेगा उतना सब मरेगा और जितना माया का रूप बनेगा उतना सव बिगड़ेगा ॥ १२ ॥ जितना कुछ बढ़ेगा उतना सब घटेगा, जितना कुछ श्राचेगा उतना सब जायगा और कल्पान्त-काल में भूतों को भूत खायगा! ॥ १३ ॥ जितने देहधारी हैं उतने सब नाश होंगे। यह बात तो प्रत्यक्ष ही है। मनुष्य बिना चीयर्योत्पत्ति कैसे हो सकती है ? ॥ १४ ॥ अन्न न होने से वीर्य कहां से होगा ? ओषधि न होने से अन्न कैसे होगा? और पृथ्वी न होने से श्रोषधि कैसे रहेगी ? ॥ १५ ॥ श्राप न होने से पृथ्वी नहीं हो सकती; तेज न होने से श्राप नहीं हो सकता; और वायु न होने से तेज नहीं हो सकता ॥ १६ ॥ अन्तरात्मा न होने से वायु कैसे होगा ? विकार न होने से अन्तरात्मा कहां से आवेगा? और देखो तो भला कि निर्विकार में विकार कहां से आया? ॥ १७॥ निर्विकार में पृथ्वी, आप, तेज, वायु, अन्तरात्मा, इत्यादि कोई विकार नहीं है ॥१८॥ जो निर्विकार निर्गुण है वही शाश्वत का लक्षण है और सम्पूर्ण अष्टधा प्रकृति नाशवंत है ॥ १६॥ जितना कुछ नाशवंत उतना सब यदि विवेक से देख लिया जाता है तो वह रहते हुए ही नाश-सा हो जाता है और सारासार-विचार से समाधान प्राप्त होता है । २० इस प्रकार विवेकपूर्वक देखने से सारसार का विचार मन में बैठ जाता है ॥ २१ ॥ अच्छा, यह तो मालूम हो चुका कि जो शाश्वत और निर्गुण है वही । मुख्य देवता है अब यह मालूम होना चाहिए कि, 'मैं कौन है ॥ २२ ॥ मैं कौन है, सो मालूम होना चाहिए । देह के सम्पूर्ण तत्वों को ढूंढ़ने से मालूम होता है कि, “ मैं तू-पन' मनोवृत्ति में रहता है ॥ २३ ॥ सारे शरीर को ढूंढ़ने से-तत्वविचार करने से-“ मैं तू-पन" का कहीं पता नहीं चलता । वास्तव में 'मैं-तू-पन तत्वों में ही लीन रहता है ॥२४॥ जब दृश्य पदार्थ ही का निरसन हो जाता है और तत्वों में तत्वों का