पृष्ठ:दासबोध.pdf/४०१

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३२२ दासबोध । [ दशक १२ लय हो जाता है तब ' मैं-तू-पन ' कहां बचता है? उस समय तो वास्तव में केवल 'वस्तु' ही बच रहती है ॥ २५॥ पंचीकरण, तत्वविवरण और महावाक्य से सिद्ध हो जाता है कि, 'मैं' ही 'वस्तु' हूं; (पर यो कह देने से कोई 'वस्तु'-ब्रह्म नहीं हो सकता;) निस्संगता के साथ निवेदन (आत्मनिवेदन) करना चाहिए ॥ २६ ॥ ईश्वर और भक्त का मूल खोजने पर निरुपाधि और केवल अात्मा की प्राप्ति होती है ॥ २७ ॥ मैं-पन डूब जाता है, विवेक से भिन्नत्व चला जाता है, और निवृत्तिपद या उन्मनीपद मिल जाता है ॥ २८ ॥ ज्ञान विज्ञान में लीन हो जाता है, ध्यान ध्येय में चला जाता है और कार्य-कारण आदि सब का विवेक हो जाता है ॥ २६ ॥ जन्ममरण की खटखट मिट जाती है, सारे पाप डूब जाते हैं और यमयातना का नाश हो जाता है ॥ ३० ॥ सारा बंधन टूट जाता है, विचार से मोक्ष प्राप्त होता है, सारे जन्म की सार्थकता होती है ॥ ३१ ॥ नाना संदेहों का निवारण हो जाता है, सारे धोखे जाते हैं और ज्ञान के विवेक से अनेक लोग पवित्र होते हैं ॥ ३२ ॥ और बहुतों के मन में यह प्रतीति आ जाती है कि, पतितपावन के दासर (पतितपावन-राम-के दास रामदास") जगत् को पावन करते चौथा समास-विवेक-वैराग्य । ॥ श्रीराम ॥ यदि किसीको राज्य प्राप्त हो जाय; और वह उसका भोग करना न जाने तो उसकी क्या दशा होगी? यही दशा बिना विवेक के वैराग्य- वाले की होती है ॥१॥ गृहस्थी की नाना प्रकार की मंझटों से ऊब कर तथा दुःखित होकर वैराग्य आ जाता है और मनुष्य घर छोड़ कर निकल जाता है ॥२॥३॥ वह चिन्ता से छूटता है, पराधीनता से अलग होता है और सांसारिक दुःखों से मुक्त होकर किसी रोगी की तरह चंगा होता है ॥ ४॥ परन्तु पशुओं की तरह स्वच्छन्द फिर कर उसे नष्ट-भ्रष्ट न होना चाहिए ॥५॥ बिना विवेक के जो वैराग्य लेता है. वह अविवेक से अनर्थ में पड़ता है और उसका दोनों ओर से सत्या- नाश होता है ॥ ६ ॥ उसका न तो.प्रपंच बनता है और न परमार्थ सारा जीवन व्यर्थ जाता है । अविवेक से अनर्थ होता है ॥ ७॥ बिना वैराग्य-