पृष्ठ:दासबोध.pdf/४६२

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समास २] निस्पृह का काम। एक जगह बैठे रहने से तो फिर काम ही नहीं चलता, इस लिये साव- धानी के साथ सब से मिलते रहना चाहिए !॥ ३४॥ लोगों से मिल मिल कर उन्हें सन्तुष्ट रखना और फिर कर मिलने के लिए उत्सुक रहना चातुर्य के लक्षण हैं । उत्तम गुणों से सब मनुण्य समाधान पाते दूसरा समास-निस्पृह का काम । ॥ श्रीरा 11 पृथ्वी में छोटे बड़े बहुत से मानवी शरीर भरे पड़े हैं, और वे क्षण क्षण में अपने मनोविकार बदलते रहते हैं ॥१॥ जितनी मूर्तियां हैं उतने ही स्वभाव है-वे कभी एकसा नहीं रहते । नेम ही नहीं है; कां तक और क्या देखें? ॥२॥ कितने ही म्लेच्छ होगये, कितने ही फिरंगियों में मिल गये और कितने ही देशभाषा के कारण रुके पड़े हैं ॥ ३ ॥ इस प्रकार 'महा-राष्ट्रीय' लोग बहुत थोड़े रह गये हैं, और जो रह भी गये हैं घे राजकीय विपयों में फँसे हैं-उन्हें खाने के लिए भी अवकाश नहीं है। अनेक काम लगे हैं !॥ ४॥ कितने ही युद्ध-प्रसंग में गुँथे रहने के कारण उन्मत्त होगये हैं और रात दिन युद्ध ही की चर्चा करने लगे हैं ! ॥५॥ उद्यमी लोग अपने व्यापार ही में फंसे हैं। उन्हें भी अवकाश नहीं है; सदा अपने ही पेट के धंधे में लगे रहते हैं ॥ ६ ॥ पइदर्शन, नाना मत और पाखंड बहुत बढ़ गये हैं जहां देखो वहां लोग इन्हीं विपयों का उपदेश करते फिरते हैं ॥७॥ इतने पर भी जो लोग बच-बचा गये है उन सबों को स्मार्त और वैष्णवों ने अपने में मिला लिया है । इस प्रकार खूब गड़बड़ मच गया है ! ॥ ८॥ कितने ही कामना के भक्त ठौर ठौर में आसक हो रहे हैं । युक्त-श्रयुक्त का विचार कौन करता है ? || || इस गड़बड़ में जो कोई दूसरा गड़बड़ बढ़ाते हैं उन्हें वैदिक लोग देख नहीं सकते-वे उनकी आखों में कांटे से चुभते हैं ! ॥ १० ॥ उसमें भी हरिकीर्तन की ओर बहुत से लोगों का मन लगा है । प्रत्ययात्मक ब्रह्मशान कौन देखता है? ॥ ११ ॥ १ अर्थात् सम्पूर्ण देश की भाषा एक न होने के कारण आपस में मिल नहीं सकते २ इस वर्णन से उस समय के इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।