पृष्ठ:दासबोध.pdf/४८३

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सोलहवाँ दशक । पहला समास-वाल्मीकि-स्तुति । ॥ श्रीराम ॥ उस वाल्मीकि को धन्य है । वह ऋपियों में पुण्यश्लोक था और उसके द्वारा यह त्रैलोक्य पावन हुआ है ॥ १॥ यह तो कभी दृष्टि से देखा नहीं गया कि, किसीने भविष्य कहा हो और फिर शतकोटि ! चाहे सारी सृष्टि छान डाली जाय; पर तो भी ऐसी बात सुनने को भी नहीं मिल सकती ॥ २॥ भविप्य का एक वचन भी यदि कभी सत्य हो जाता है तो तमाम पृथ्वी मंडल के लोग उस पर आश्चर्य करते हैं ॥ ३ ॥ जब रघुनाथ का अवतार भी न हुआ था तभी उसने, शास्त्राधार लिये बिना, रामकथा का विस्तार कर दिया! ॥४॥ उसके वाग्विलास को सुन कर महेश भी सन्तुष्ट हो गया। फिर उसने शतकोटि रामायण त्रैलोक्य. में वांट दी ॥ ५॥ उसका कवित्व शंकर ने देखा, दूसरे से उसके कवित्व का अनुमान भी नहीं हो सका । उससे रामोपासकों को परम समाधान हुआ ॥ ६ ॥ बड़े बड़े ऋपि हो गये, बहुतों ने कवित्व किया है; पर वाल्मीकि के समान कवीश्वर न हुश्रा है, न होगा ॥ ७ ॥ पहले दुष्ट कर्म किये पर फिर रामनाम से पावन हुआ । दृढ़ नियमपूर्वक नाम जपने से उसे असीम पुण्य प्राप्त हुभा ॥ ८॥ उलटा नाम जपने से पाप के पर्वत चूर हो गये और पुण्य के ध्वज ब्रह्मांड पर फड़क उठे ॥ ६ ॥ वाल्मीकि ने जहां तप किया वह वन पुण्य से पावन होगया और उसके तपोबल से सूखे काठ में भी अंकुर फूटा! ॥ १० ॥ पहले वाल्मीकि भूमं- डल में विख्यात जीवघातकी वाल्हा' नाम का कोल था। परन्तु अब उसीको बड़े बड़े विबुध और ऋपीश्वर चन्दन करते हैं ॥ ११ ॥ पुरुष में उपरति और अनुताप आता है उसमें पाप कैसे रह सकता है ? देह के अंत होने तक तप करने से वाल्मीकि का पुण्यरूप दूसरा जन्म हुआ ॥ १२॥ अनुताप में आकर ऐसा आसन लगाया कि, देह की बाँबी बन गई; इसी लिए आगे वही 'वाल्मीकि' नाम पड़ा ॥१३॥ बांची को संस्कृत में 'वल्मीक' कहते हैं, इसी लिए 'वाल्मीकि ' नाम पड़ा। उसके तीव्र तप को सुन कर बड़े बड़े तपस्वियों का भी हृदय कैंप उठता है ॥ १४ ॥ वह तपस्तियों में श्रेष्ठ है, वह कवीश्वरों में श्रेष्ठ है