पृष्ठ:दासबोध.pdf/५२

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संक्षिप्त विषय-वर्णन। ५ अश्रः-ऐ डरपोक, तु. इस भवभय से क्यों डरता है ! अरे मन, धीरज धर और भय का त्याग कर। अस्तु । यह ग्रन्थ गुरु और शिय के संवाद रूप में लिखा गया है। पहले दशक के आरंभ में ग्रन्थ का नाम बता कर, उसमें कौन कौन विषय है, उन विषयों का प्रतिपादन किन किन प्राचीन अन्यों के प्रमाण पर किया गया है, इसके अधिकारी फाटक कौन हैं, इसके पड़ने से क्या लाभ है, इत्यादि बातें बतलाई गई हैं। इसके बाद शिष्ट और प्राचीन पद्धति के अनुसार मंगल चरण कह कर सद्गुरु और संतसज्जनों की बन्दना की है । श्रोताओं की प्रार्थना करके कवियों की प्रशंसा की है; सभा का वर्णन करके परमार्थ की श्रेष्ठता बताई है। इस दशक के अंत में नरदेह को योग्यता बता कर उसकी वढ़ाई की गई है। यहीं से “ चोध" का आरम्भ हुआ है। दुनरे दशक में, यह सोचकर कि मूल जन नरदेह क. वड़ाई ही में भूल कर उसका दुरुपयोग करने लगेंगे, उसको न्यूनता बताई है और देहाभिमान के त्याग का उपदेश दिया है। मैं, मेरा —इस संसार की नश्वरता वतलाकर कुविद्या त्याग करने के लिए मूल के लक्षण बतलाये हैं । इसके बाद भक्ति का कुछ वर्णन करके सत्व, रज और तम का वर्णन क्रमशः न करते हुए पहले रज, फिर तम और अंत में सत्त्व गुण का वर्णन किया है । पहले रजोगुण के वर्णन करने का कारण यह जान पड़ता है कि रजोगुण ही सांसारिक मुखादि भोगों का मुख्य प्रवर्तक है । फल की आशा रख कर कर्म करना या पूर्वकर्म के फल का उपभोग करना रजोगुण ही का धर्म है। संसारी लोगों के अधिकांश व्यवहार इसी गुण से होते हैं । अतएव पहले इसीका वर्णन किया गया और बताया गया कि यदि यही रजोगुण पारमार्थिक कार्य में लगाया जाय तो सत्त्वगुण की वृद्धि और तमोगुण का नाश आप ही आप हो जायगा। इतना वतलाकर आगे मुविद्या का वर्णन किया गया है। यह सब व्यावहारिक उपदेश है। तीसरे दशक में एक व्यक्ति के गर्भवास से मृत्युपर्यन्त उसका जीवनचरित बताकर 'खगुण-परीक्षा' का उपदेश दिया है। इसमें मनुष्य की संसार-यात्रा का अति उत्तम चिन है ! इसके पढ़ने या सुनने से मन पर वहुत अच्छा प्रभाव होता है । चौथे दशक में श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन इन नव प्रकार की भक्तियों का पृथक् पृथक् वर्णन करके चारो प्रकार की मुक्तियों का वर्णन किया है। श्रीसमर्थ का यह सिद्धान्त सर्वमान्य है। कि आत्मनिवेदन ही सायुज्य-मुक्ति-दायक मुख्य भक्ति है। नवमी भन्ति आत्मनिवेदन । न होतां न सुके जन्ममरण ॥ हे वचन सत्य प्रमाण । अन्यथा नव्हे ॥ ४-२५ पाँचत्रे दशक में पहले सद्गुरु और सत्-शिष्य के लक्षण बतला कर सत्य उपदेश का निरु- पण किया है। आर्य-धर्म के इस सनातन सिद्धान्त पर–कि “ सद्गुरुविण ज्ञान कांहीं । .