पृष्ठ:दासबोध.pdf/५३

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६ दासबोध की आलोचना। सर्वथा होणार नाहीं।" सद् गुरु के विना ज्ञान की प्राप्ति कदापि न होगी-श्रीसमर्थ ने बहुत जोर दिया है । परन्तु इसीके साथ यह भी बताया है कि गुरु ऐसा चाहिए जो शिष्य को परमार्थ के साधनों की शिक्षा दे और इन्द्रियदमन करा कर विषयों से निवृत्त करे । जो इस प्रकार शिक्षा न दे सकें वे गुरु यदि कोदी के तीन तीन भी मिलें तो भी त्याज्य है:- शिष्यास न लविती साधन । न करविती इन्द्रिय दमन । ऐसे गुरु अडक्याचे तीन । मिळाले तरी त्यजावे ॥"ऐसा कह कर अनेक प्रकार के असद्गुरुओं का वर्णन किया है जो समाज में गुरु वन कर लोगों को ठगते और भ्रष्ट करते हैं । इसके बाद बहुधा ज्ञान का निरूपण करके शुद्ध ज्ञान का वर्णन किया है। तदनन्तर क्रमशः बद्ध, मुमुक्षु, साधक और सिद्ध के लक्षण और कर्तव्यों का प्रभावशाली वर्णन किया है । बद्ध और मुमुक्षु के लक्षणं पढ़ते समय, कैसा भी पापाणहृदय मनुष्य हो तोभी उसका अन्तःकरण पश्चात्ताप से विदीर्ण हो जाता है। इन दो समासों के प्रत्येक पद्य का एक एक शब्द, पढ़नेवाले को अपने कृत कमों की याद दिलाकर और कुछ समय तक चित्त की वृत्तियों को अनु- ताप से शिथिल करके ईश्वर के स्मरण में लीन कर देता है । छठवें दशक से अध्यात्म-निरू- पण का प्रारम्भ हुआ है । इसके प्रथम पाँच समासों में भाया और ब्रह्म का अच्छी तरह विवरण करके सगुण भजन का प्रतिपादन किया है । इसके बाद यह उपदेश किया है कि सव में जो सार है उसको ढूंढ़ लेना चाहिए और असार वस्तु का त्याग करना चाहिए। सातवें दशक में चौदह ब्रह्मों का शास्त्रों के प्रमाण देकर वर्णन किया है और यह बतलाया है कि जितने नाम हैं-जितना कुछ बतलाया जा सकता है-वे अशाश्वत ब्रह्म हैं । शाश्वत ब्रह्म वाचा से परे है-वह अनिर्वाच्य है। आठवाँ दशक अध्यात्मज्ञान का सार है। ज्ञानदशक " भी कहते हैं । इसमें पहले ईश्वर की महिमा वर्णन करके दो समासों में अनेक सूक्ष्म आशंकायें उठाई हैं; फिर सूक्ष्म और स्थूल पंचमहाभूतों का विस्तारपूर्वक विवरण करके मोक्ष, आत्मा, सिद्ध पुरुप और शुन्यत्व का निरूपण किया है। आठवें दशक के बाद विषयों का कोई क्रम ठीक ठीक नहीं मिलता, पर इसमें सन्देह नहीं कि ग्रन्थ के इसी भाग में संसारी लोगों के लिए अनेक व्यावहारिक उपदेश-रत्न भरे पड़े हैं। नवें दशक में ब्रह्म-निरूपण करके अनेक शंकाओं का समाधान करते हुए निस्सन्देहता स्थापन की गई है । दसवें दशक में पहले इस बात का युक्तिपूर्वक प्रतिपादन किया है कि अन्तरात्मा सव में एक ही है । इसके बाद वाजलक्षण, पंचप्रलय, और प्रकृति- पुरुप आदि कई महत्त्वपूर्ण विषयों का दिग्दर्शन करके भीसदशक-ग्यारहवें दशक---का प्रारम्भ हुआ है । यह दशक बड़े महत्त्व का है । इसके नाम ही से इसका महत्त्व समझ लेना चाहिए । श्रीहनुमानजी को शास्त्र में ग्यारहवाँ भीम ( रुद्र) माना है; इसी लिए इस दशक का नाम भीम रक्खा गया है। इसमें पहले अध्यात्मविद्या का सिद्धान्त वतलाकर सांसारिकों के लिए अच्छी शिक्षा दी है । इसीमें राजकारण, अर्थात् राजनीति-सम्तन्धी तत्वों का निरूपण है। इसके बाद महन्त के लक्षण बतलाये हैं। महन्त को कौन कौन इसीको -