पृष्ठ:दासबोध.pdf/५८

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1 मुमुक्षु और सद्गुरु । सर्वथा भूल जाते हैं और व्यर्थ नरदेह की निन्दा करते हैं। नाच न आवे आँगन टेढ़ा ! ऐसे लोगों की उन्नति के बदले अवनति होती है। ८--मुमुक्षु और सद्गुरु । ऐसे बद्ध प्राणी को जब सांसारिक ताप-त्रय से खेद और पश्चात्ताप होता है, तब उस दुःस से छूटने का प्रश्न उसके सन्मुख आता है, तब वह वृद्धावस्था से मुक्त होने का उपाय खोजता है । इनका निरूपण दासबोध में वैसा ही है, जैसा अन्यान्य प्रन्थों में है; पर दासबोध में इतनी विशेषता है कि महाराष्ट्र की तत्कालीन अवस्था में जो कुछ उचित था, वही इस अन्य में निरूपण किया गया है । अस्तु । पूर्व-पुण्य के कारण उस वद्ध-प्राणी की जब सद्गुरु से भेट होती है जब वह सद्गुरु के शरण जाता है तब गुरु के उपदेश से तामसवृत्ति का वह त्याग करता है । इसके बाद उसे मालूम होता है कि मैं वद्ध नहीं हूँ... स्वतन्त्र हूँ. । भ्रम के कारण मैं अपने को बद्ध समझता था :--- कोणासीच नाहीं बन्धन । भ्रान्तिस्तव भुलले जन । दृढ घेतला देहाभिमान । म्हणोनियाँ ।। ५७ ॥ द०५ स०६ वास्तव में वन्धन किसीको नहीं है कोई भी बद्ध नहीं है—सारे प्राणी भ्रान्ति से भूले हुए हैं। क्योंकि वे देहाभिमान-~-अहन्ता के गर्व-को दृढ़ता से पकड़े हैं । इस भ्रम का निरसन होते ही मुमुक्षा-मोक्ष या स्वतन्त्रता की इच्छा का उदय होता है । जब यह इच्छा प्रवल होती है, तव प्राणी सात्त्विक वृत्ति का अभ्यास करने लगता है और जिसकी कृपा से यह इच्छा उत्पन्न हुई है उस सद्गुरु के चरणों की सेवा करने लगता है । सद्गुरु के उपदेश, सहवास और कृपा से बड़ा लाभ होता है । जो नरदेह पहले निन्द्य और तिर- स्करणीय जान पड़ती थी; वही अव वन्दनीय और उपयोगी प्रतीत होने लगती है । गुरु के उपदेश से मनुष्य की विवेक-दृष्टि शुद्ध और निर्मल हो जाती है । उसे इस बात का विश्वास हो जाता है कि इस संसार में मेरा कुछ कर्तव्य है कोई उद्देश है--ध्येय है—साध्य है; उस साध्य को प्राप्त करने के लिए यह नरदेह अत्यन्त आवश्यक और उपयोगी है । यदि नरदेह न मिलती, के.ई अन्य देह (पशु, पक्षी, कीटादि) मिलती तो इस साध्य का प्राप्त कर लेना असम्भव था । श्रीसमर्थ कहते हैं :- पशु देहीं नाहीं गती । ऐसें सर्वत्र बोलती । म्हणोन नरदेहींच प्राप्ती । परलोकाची ॥ २१ ॥ नरदेह हा स्वाधीन । सहला नव्हे पराधीन । परन्तु हा परोपकारी झिजवून ! कीर्तिरूपें उरवावा ॥ २५ ॥ द०१ स०१० +