पृष्ठ:दासबोध.pdf/६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लोकोद्धार के तीन उपाय । US - 3 + जैसे पहचान लेने पर साहब को वन्दगी या नमस्कार करते हैं, वैसे ही मूल परमात्मा को पहचान कर मूर्ति की पूजा करनी चाहिए।" अपनी कल्पना के अनुसार बनाई हुई परमेश्वर की प्रतिमा में परमेश्वर का ध्यान करना ही उपासना है। प्रतिमा का आकार-- रूप---वहे जैसा हो, और उसका नाम च हे जो रक्खा गया हो; पर मुख्य बात यह है कि वह एक ही परब्रह्म ( वस्तु ) के. भिन्न भिन्न प्रतिमाये और नाम है ।. खंडोवा, विठोबा, नारायण, राम, कृष्ण, लक्ष्मी, शिव, विष्णु, सरस्वती, इत्यादि अनेक प्रकार के नाम उसी एक अनिर्वाच्य वस्तु को दिये गये हैं। इस अनिर्वाच्य वस्तु-परब्रह्म- परमात्मा की एकता को, उपासना करते समय, कदापि भूल न जाना चाहिए । खधर्म, कुलधर्म, वर्णाश्रम-धर्म, सव एक उपासना-धर्म अर्थत् भक्तिमार्ग में आ जाते हैं। लोगों को इस उपासना-धर्म में-भक्तिमार्ग में प्रवृत्त करना ही, उनको परमार्थमार्ग में लगाना है। अतएव भक्तिमार्ग की स्थापना, खधर्म की स्थापना, समाज के उद्धार का मुक्ति या स्वतन्त्रता का दूसरा बड़ा उपाय है । धर्मस्थापना करनेवाले सिद्ध पुरुप साक्षात् ईश्वर के अवतार है: धर्मस्थापनेचे नर । ते ईश्वराचे अवतार। जाले आहेत पुढे होणार ! देणे ईश्वराचें ॥ २० ॥ द०१०स०६ "धर्मस्थापन करनेवाले नर ईश्वर के अवतार है-वे हो गये हैं और भागे होनेवाले हैं। देना ईश्वर के हाथ में है। ३-राज्यस्थापना। नीति और धर्म की स्थापना से परमार्थ-मोक्ष, मुक्ति, स्वतन्त्रता- की अंशतः प्राप्ति होती है-समाज का अंशतः उद्धार होता है। परन्तु उसको पूर्णता के लिए उस लाभ को अप्रतिबद्ध और चिरस्थायी करने के लिए राज्यस्थापन की आव- श्यकता है ! समाज में सभी लेग मुमुक्षु--मोक्ष या स्वतन्त्रता की इच्छा करनेवाले अर्थात् नीतिमान् और धार्मिक नहीं होते। अधिकांश जन बद्ध होते हैं-परतन्त्र और अनीति. मान् होते हैं-अतएव अधर्मी होते हैं। नीतिमानों और धार्मिकों की प्रवृत्ति, नीति और धर्म की ओर होती है; अनीतिम.नों और अधार्मिकों की प्रवृत्ति, अनीति और अधर्म की ओर होती है । इस लिए जव सिद्ध या साधक, सुमुक्षु जनों की सहायता से, समाज के उद्धार के लिए, नीति और धर्म की स्थापना का यत्न करने लगते हैं, तब बद्ध जन अर्थात् अनीतिमान् और अधर्मा लेग विरोध करते है -विघ्न उपस्थित करते हैं। इस विरोध का फल यह होता है कि नीति और धर्म की स्थापना पूरी तरह नहीं हो पाती; और यदि हुई भी तो वह बहुत समय तक टिक नहीं सकती; और अन्त में सारा समाज परमार्थ से परावृत्त हो जाता है । यह स्थिति मुमुक्षु जनों के लिए अत्यन्त हानि- कारक होती है। मुमुक्षु जनों को संख्या स्वभावतः कम होती है, इसलिए वे केवल