पृष्ठ:दासबोध.pdf/७५

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२८ दासबोध की आलोचना । व्याख्यान दिये, उस समय हिन्दुस्तान की राजकीय स्थिति बहुत ही विपरीत हो गई थी। इसी विपरीत स्थिति का विपरीत वर्णन, मिल आदि ग्रन्धकारों ने किया और हेगल ने भी अपने अनुमान उसी विपरीत वर्णन से स्थिर किये। इस आर्य-भूमि में सात्त्विक गुणों का उन्नीसवें शतक के प्रारम्भ में जो ह्रास हुआ; उसके लिए यदि महाराष्ट्र के लोगों को दोष दिया जाय, तो यह एक बार सुन लिया जा सकता है, पर अठारहवें शतक के उत्तरार्ध के पहले सौ, सवा सौ वर्ष सद्गुणों का जो उदय महाराष्ट्र में हुआ था, उसकी ओर यदि ये लोग (युरोपियन ) देखी अनदेखी करें, तो यह केवल पक्षपात का लक्षण है । पक्षपात के ही कारण हेगल ने यह अवास्तव विधान किया है कि हिन्दू लोगों का मत one is free ( एक स्वतन्त्र है ) रहता है । जब वेदान्त, गीता और श्रीरामदास वारंबार यह कह रहे हैं कि सद्गुणों से सब लोग मुमुक्षु अर्थात् स्वतन्त्र होने योग्य है और जब स्वयं हेगल ने मोक्ष का सिद्धान्त वेदान्त-प्रन्यों से लिया है; तव यही कहना पड़ता है कि निस्सन्देह उसका उक्त कथन पक्षपात, दुरभिमान, दुराग्रह, और महाराष्ट्र इतिहास का अज्ञान प्रकट करता है । यूरोपियनों के इस दुगग्रह को दूर करने के लिए और यह सिद्ध करने के लिए कि आज तीन सौ वर्ष से यूरोपियनों का जो परमार्थ की ओर जाने का हेतु देख पड़ता है, वही मराठों का भी था, इधर एक इति- हास-वेत्ता ने ग्रन्थ लिखा है। वह ग्रन्थ रानडे का “ मराठों का इतिहास" है। रानडे का यह सिद्धान्त सर्वमान्य है कि मराठों का इतिहास जगत् के इतिहास का एक घटक होने योग्य है। यदि यह अन्य अपने समय से १०० वर्ष पहले वना होता, तो हेगल के समान लोगों को जग के इतिहास के तत्त्वदर्शन में कुछ फेर-फार अवश्य करना पड़ता । अस्तु; यहाँ तक जो पृथक्करण और तुलना की गई उससे पाठकों को यह मालूम हो गया होगा कि दासबोध ग्रन्थ किस स्वरूप का है। यह ग्रन्थ वास्तविक इतिहास के तत्त्वज्ञान से पूर्ण है । हाँ, इतना ज़रूर है कि इस ग्रन्थ की विवेचन-पद्धति ऐतिहासिक नहीं है; वह आध्यात्मिक किंवा ताविक है। १९-दासबोध में योगमार्ग क्यों नहीं बतलाया? यहाँ तक इस ग्रन्थ में वर्णित मुख्य मुख्य सिद्धान्तों के विषय में जो विवेचन किया गया, उससे किसी किसी को कदाचित् यह सन्देह उठ सकता है कि श्रीसमर्थ ने भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग का जिस प्रकार निरूपण किया है उसी प्रकार योग- मार्ग का क्यों नहीं किया ? इसका उत्तर यही है कि प्रथम तो वेदान्त में योगमार्ग का विशेष महत्त्व ही नहीं है । इसके सिवा समर्थ कट्टर अद्वैतवादी थे; इसी लिए योगमार्ग के घटाटोप का उन्होंने अपने ग्रन्थों में वर्णन नहीं किया। दासबोध और अन्य ग्रन्थों में कहीं कहीं हठयोग के ढोंगियों का वर्णन न होने का एक यह भी कारण हो सकता है कि योग की शिक्षा साधारण जन-समूह के लिए अत्यन्त दुष्कर है। उसके लिए निर्वात