पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१०५

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लो, वह भी कहते हैं कि यह बे नँग-ओ-नाम है यह जानता अगर, तो लुटाता न घर को मैं चलता हूँ थोड़ी दूर; हर इक तेज रे के साथ पहचानता नहीं हूँ अभी, राहबर को मैं ख्वाहिश को, अहमकों ने, परस्तिश दिया करार क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदादगर को मैं फ़िर बेखुदी में भूल गया, राह-ए-कू-ए-यार जाता बगरनः एक दिन अपनी खबर को मैं अपने प कर रहा हूँ क्रियास, अहल-ए-दहर का समझा हूँ दिल पिजीर, मता'-ए-हुनर को मैं गालिब, ख़ुदा करे कि सवार -ए -समन्द-ए-नाज़ देखू 'अली बहादुर- ए - 'पाली गुहर को मैं १०१ जिक्र मेरा, बबदी भी, उसे मंजूर नहीं गैर की बात बिगड़ जाय, तो कुछ दूर नहीं वा'दः-ए-सैर-ए-गुलिस्ताँ है, ख़ुशा ताले-ए-शौक़ मुशदः-ए-क़त्ल मुक़दर है, जो मजकूर नहीं