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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१०४

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शर्म इक अदा-ए-नाज़ है, अपने ही से सही
हैं कितने बे हिजाब, कि हैं यों हिजाब में

आराइश-ए-जमाल से फ़ारिग़ नहीं हनोज़
पेश-ए-नज़र है आइनः दाइम निक़ाब में

है ग़ैब-ए-ग़ैब, जिसको समझते हैं हम शुहूद
हैं ख़्वाब में हनोज, जो ज़ागे हैं ख़्वाब में

ग़ालिब, नदीम-ए-दोस्त से, आती है बू-ए-दोस्त
मशग़ूल-ए-हक़ हूँ, बन्दगि-ए-बू तुराब में

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हैराँ हूँ, दिल को रोऊँ, कि पीटूँ, जिगर को मैं
मक़दूर हो, तो साथ रखू नौहःगर को मैं

छोड़ा न रश्क ने, कि तिरे घर का नाम लूँ
हर इक से पूछता हूँ, कि जाऊँ किधर को मैं

जाना पड़ा रक़ीब के दर पर, हज़ार बार
अय काश, जानता न तिरी रहगुज़र को मैं

है क्या, जो कस के बाँधिये, मेरी बला डरे
क्या जानता नहीं हूँ, तुम्हारी कमर को मैं