पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१०४

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शर्म इक अदा-ए-नाज है, अपने ही से सही हैं कितने बे हिजाब, कि हैं यों हिजाब में आराइश-ए-जमाल से फ़ारिश नहीं हनोज पेश-ए-नज़र है पाइनः दाइम निक़ाब में है गैब-ए-रौब, जिसको समझते हैं हम शुहूद हैं ख्वाब में हनोज, जो जागे हैं ख़्वाब में गालिब, नदीम-ए-दोस्त से, पाती है बू-ए-दोस्त मशगूल-ए-हक़ हूँ, बन्दगि-ए-बू तुराब में हैराँ हूँ, दिल को रोऊँ, कि पी, जिगर को मैं मकदूर हो, तो साथ रखू नौहःगर को मैं छोड़ा न रश्क ने, कि तिरे घर का नाम लूँ हर इक से पूछता हूँ, कि जाऊँ किधर को मैं जाना पड़ा रक़ीब के दर पर, हज़ार बार अय काश, जानता न तिरी रहगुजर को मैं है क्या, जो कस के बाँधिये, मेरी बला डरे क्या जानता नहीं हूँ, तुम्हारी कमर को मैं