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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१०७

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‘अिश्क़-ओ-मजदूरि-ए-‘अिश्रत गह-ए-ख़ुसरू क्या ख़ूब
हम को तसलीम निकुनामि-ए-फ़रहाद नहीं

कम नहीं वह भी ख़राबी में, प वुस‘अत मा‘लूम
दश्त में, है मुझे वह ‘अैश, कि घर याद नहीं

अहल-ए-बीनिश को, है तूफ़ान-ए-हवादिस, मकतब
लतमः-ए-मौज, कम अज़ सेलि-ए-उस्ताद, नहीं

वाये महरूमि-ए-तसलीम-ओ-बदा हाल-ए-वफ़ा
जानता है, कि हमें ताक़त-ए-फ़रियाद नहीं

रँग-ए-तमकीन-ए-गुल-ओ-लालः परीशाँ क्यों है
गर चराग़ान-ए-सर-ए-रह गुज़र-ए-बाद नहीं

सबद-ए-गुल के तले बन्द करे है गुलचीं
मुश़दः, अय मुर्ग़, कि गुलज़ार में सय्याद नहीं

नफ़ि से करती है इस्बात तराविश गोया
दी ही जा-ए-दहन उस को दम-ए-ईजाद, नहीं

कम नहीं, जल्वः गरी में, तिरे कूचे से बिहिश्त
यही नक़्शः है, वले इस क़दर आबाद नहीं

करते किस मुँह से हो, ग़ुर्बत की शिकायत, ग़ालिब
तुम को बेमेह्रि-ए-यारान-ए-वतन याद नहीं