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दोनों जहान दे के, वह समझे, यह ख़ुश रहा
याँ आपड़ी यह शर्म, कि तकरार क्या करें
थक थक के, हर मक़ाम प दो चार रह गये
तेरा पता न पायें, तो नाचार क्या करें
क्या शम्'अ के नहीं है हवा ख्वाह अहल-ए-बज़्म
हो ग़म ही जाँ गुदाज़, तो ग़मख़्वार क्या करें
१०४
हो गई है ग़ैर की शीरीं बयानी, कारगर
'अश्क़ का उसको गुमाँ हम बेज़बानों पर नहीं
१०५
क़यामत है, कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना
त'अज्जुब से वह बोला, यों भी होता है ज़माने में
दिल-ए-नाजुक प उस के रह्म आता है मुझे, ग़ालिब
न कर सर्गर्म उस काफ़िर को उल्फ़त आज़माने में