पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१०८

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१०३

दोनों जहान दे के, वह समझे, यह ख़ुश रहा
याँ पापड़ी यह शर्म, कि तकरार क्या करें

थक थक के, हर मकाम प दो चार रह गये
तेरा पता न पायें, तो नाचार क्या करें

क्या शम्अ के नहीं है हवा ख्वाह अहल-ए-बड़म
हो राम ही जाँ गुदाज, तो ग़मवार क्या करें

१०४

हो गई है और की शीरी बयानी, कारगर
'प्रिश्न का उसको गुमाँ हम बेजबानों पर नहीं

१०५

कयामत है, कि सुन लैला का दश्त-ए-कैस में आना
त'अज्जुब से वह बोला, यों भी होता है जमाने में

दिल-ए-नाजुक प उस के रम आता है मुझे, गालिब
न कर सगर्म उस काफ़िर को उल्फ़त आजमाने में