पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/११४

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यों ही गर रोता रहा ग़ालिब, तो अय अल-ए-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम, कि वीरों हो गई

दीवानगी से, दोश प जुन्नार भी नहीं
यानी हमारी जैब में इक तार भी नहीं

दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके
देखा तो हम में ताकत-ए-दीदार भी नहीं

मिलना तिरा अगर नहीं आसाँ, तो सहल है
दुश्वार तो यही है, कि दुश्वार भी नहीं

बे 'अिश्क 'झुम्र कट नहीं सकती है, और याँ
ताक़त ब कद्र-ए-लज्जत-ए-अाजार भी नहीं

शोरीदगी के हाथ से, है सर वबाल-ए-दोश
सहरा में, अय ख़ुदा, कोई दीवार भी नहीं

गुंजाइश-ए-'अदावत-ए-अरायार इक तरफ़
याँ दिल में, जो'फ़ से, हवस-ए-यार भी नहीं

डर नालःहा -ए-ज़ार से मेरे, ख़ुदा को मान
अाखिर नवा-ए-मुर्रा - ए- गिरफ़्तार भी नहीं