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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/११३

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इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इन्तिक़ाम
क़ुदरत-ए-हक़ से, यही हूरें अगर वाँ हो गंई

नीन्द उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी ज़ुल्फें, जिस के बाजू पर, परीशाँ हो गईं

मैं चमन में क्या गया, गोया दबिस्ताँ खुल गया
बुलबुलें सुन कर मिरे नाले, ग़ज़लख्वाँ हो गंई

वह निगाहें क्यों हुई जाती हैं, यारब, दिल के पार
जो मिरी कोताहि-ए-क़िस्मत से मिश़गाँ हो गईं

बसकि रोका मैं ने, और सीने में उभरी पै ब पै
मेरी आहें बखियः-ए-चाक-ए-गरीबाँ हो गंई

वाँ गया भी मैं, तो उनकी गालियों का क्या जवाब
याद थीं जितनी दु‘आयें, सर्फ़-ए-दरबाँ हो गईं

जाँ फ़िज़ा है बादः, जिसके हाथ में जाम आ गया
सब लकीरें हाथ की, गोया रग-ए-जाँ हो गंई

हम मुव्वहिद हैं, हमारा केश है, तर्क-ए-रुसूम
मिल्लतें जब मिट गंई, अज्ज़ा-ए-ईमाँ हो गईं

रँज से ख़ूगर हुआ इंसाँ, तो मिट जाता है रँज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी, कि आसाँ हो गंई