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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/११६

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हुये उस मेह्र वश के जल्वः-ए- तिम्साल के आगे
पर अफ़शाँ जौह्र आईने में, मिस्ल-ए-ज़र्र: रौज़न में

न जानूँ नेक हूँ या बद हूँ, परसोहबत मुख़ालिफ़ है
जो गुल हूँ तो हूँ गुलख़न में, जो ख़स हूँ तो हूँ गुलशन में

हज़ारों दिल दिये, जोश-ए-जुनून-ए-'अश्क़ ने मुझको
सियह होकर सुवैदा हो गया हर क़तरः खूँ तन में

असद, ज़िन्दानि-ए-तासीर-ए-उल्फ़तहा-ए-ख़ूबाँ हूँ
ख़म-ए-दस्त-ए-नवाज़िश हो गया है तौक़ गर्दन में

११५


मजे जहान के अपनी नजर में ख़ाक नहीं
सिवाये ख़ून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं

मगर ग़ुबार हुये पर, हवा उड़ा ले जाये
वगरनः ताब-ओ-तवाँ बाल-ओ-पर में ख़ाक नहीं

यह किस बिहिश्त शमाइल की आमद आमद है
कि ग़ैर-ए-जल्व:-ए-गुल रहगुज़र में ख़ाक नहीं

भला उसे न सही, कुछ मुझी को रह्न आता
असर मिरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं