पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/११७

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ख़याल-ए-जल्वः-ए-गुल से ख़राब हैं मैकश शराब ख़ाने के दीवार-यो-दर में ख़ाक नहीं हुया हूँ 'निश्क की ग़ारतगरी से शर्मिन्दः सिवाये हसरत-ए-ता मीर घर में ख़ाक नहीं हमारे शेर हैं अब सिर्फ दिल्लगी के, असद खुला, कि फायदः अर्ज-ए-हुनर में खाक नहीं ११६ दिल ही तो है, न सँग-यो-ख़िश्त, दर्द से भर न आये क्यों रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यों दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, प्रास्ताँ नहीं बैठे हैं रहगुज़र प हम, कोई हमें उठाये क्यों जब वह जमाल-ए-दिल फ़रोज, सूरत-ए-मेह्र-ए-नीमरोज़ आप ही हो नजारः सोज, पर्दे में मुँह छुपाये क्यों दश्नः-ए-रामजः जाँ सिताँ, नावक-ए-नाज बे पनाह तेरा ही 'अक्स-ए-रुख़ सही, सामने तेरे आये क्यों कैद-ए-हयात-ओ-बन्द-ए- राम, अस्ल में दोनों एक हैं मौत से पहले, आदमी राम से नजात पाये क्यों