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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/११७

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ख़याल-ए-जल्वः-ए-गुल से ख़राब हैं मैकश
शराब ख़ाने के दीवार-ओ-दर में ख़ाक नहीं

हुया हूँ 'अश्क़ की ग़ारतगरी से शर्मिन्दः
सिवाये हसरत-ए-ता'मीर घर में ख़ाक नहीं

हमारे शे'र हैं अब सिर्फ़ दिल्लगी के, असद
खुला, कि फायदः अर्ज-ए-हुनर में खाक नहीं

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दिल ही तो है, न सँग-यो-ख़िश्त, दर्द से भर न आये क्यों
रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यों

दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्ताँ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र प हम, कोई हमें उठाये क्यों

जब वह जमाल-ए-दिल फ़रोज़, सूरत-ए-मेह्र-ए-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारः सोज़, पर्दे में मुँह छुपाये क्यों

दश्नः-ए-ग़मज़: जाँ सिताँ, नावक-ए-नाज़ बे पनाह
तेरा ही 'अक्स-ए-रुख़ सही, सामने तेरे आये क्यों

क़ैद-ए-हयात-ओ-बन्द-ए-ग़म, अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले, आदमी ग़म से नजात पाये क्यों