पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१२१

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है मुझको तुझसे तज़किरः-ए-ग़ैर का गिला
हरचन्द बरसबील-ए-शिकायत ही क्यों न हो

पैदा हुई है, कहते हैं, हर दर्द की दवा
यों हो, तो चारः-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ही क्यों न हो

डाला न बेकसी ने किसी से मु‘आमला
अपने से खेंचता हूँ, ख़जालत ही क्यों न हो

है आदमी बजाये ख़ुद, इक मह्शर-ए-ख़याल
हम अंजुमन समझते हैं, ख़ल्वत ही क्यों न हो

हँगामः-ए-ज़बूनि-ए-हिम्मत है, इन्फ़ि‘आल
हासिल न कीजे दह्र से, 'अिब्रत ही क्यों न हो

वारस्तगी बहानः-ए-बेगानगी नहीं
अपने से कर, न ग़ैर से, वहशत ही क्यों न हो

मिटता है फ़ौत-ए-फ़ुर्सत-ए-हस्ती का ग़म कोई
अुम्र-ए-‘अज़ीज़ सर्फ़-ए-‘अिबादत ही क्यों न हो

उस फ़ितनः ख़ू के दर से अब उठते नहीं, असद
इसमें हमारे सर प क़यामत ही क्यों न हो