पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१२०

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अगर वह सर्व कद, गर्म-ए-खिराम-ए-नाज आ जावे कफ़-ए-हर खाक-ए-गुलशन शक्ल-ए-नुमरी नालः फ़र्सा हो का बे में जारहा, तो न दो तानः, क्या कहीं भूला हूँ हक्क-ए-सोहबत-ए-अल-ए-कुनिश्त को ताअत में ता, रहे न मै-श्रो-वाँगबी की लाग दोजख़ में डाल दो, कोई लेकर बिहिश्त को हूँ मुंहरिफ न क्यों, रह-ओ-रस्म-ए- सवाब से टेढ़ा लगा है क़त, कलम-ए-सरनविश्त को गालिब, कुछ अपनी सभि से लहना नहीं मुझे ख़रमन जले, अगर न मलख़ खाये किश्त को - १२० , वारस्तः उससे हैं, कि महब्बत ही क्यों न हो कीजे हमारे साथ, 'अदावत ही क्यों न हो छोड़ा न मुझमें जो फ़ ने रँग इख़्तिलात का है दिल प बार, नक्श-ए-महब्बत ही क्यों न हो