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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१२०

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अगर वह सर्व क़द, गर्म-ए-ख़िराम-ए-नाज़ आ जावे
कफ़-ए-हर खाक़-ए-गुलशन शक्ल-ए-क़ुमरी नालः फ़र्सा हो

११९


का'बे में जारहा, तो न दो ता'नः, क्या कहीं
भूला हूँ हक़्क़-ए-सोहबत-ए-अह्ल-ए-कुनिश्त को

ता'अत में ता, रहे न मै-ओ-वाँगबीं की लाग
दोज़ख़ में डाल दो, कोई लेकर बिहिश्त को

हूँ मुंहरिफ न क्यों, रह-ओ-रस्म-ए-सवाब से
टेढ़ा लगा है क़त, कलम-ए-सरनविश्त को

ग़ालिब, कुछ अपनी स'अ से लहना नहीं मुझे
ख़रमन जले, अगर न मलख़ खाये किश्त को

१२०


वारस्तः उससे हैं, कि महब्बत ही क्यों न हो
कीजे हमारे साथ, 'अदावत ही क्यों न हो

छोड़ा न मुझमें ज़ो'फ़ ने रँग इख़्तिलात का
है दिल प बार, नक़्श-ए-महब्बत ही क्यों न हो