पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१२५

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दिल को मैं, और मुझे दिल, मब-ए-वफ़ा रखता है किस क़दर जौक़-ए-गिरफ्तारि-ए-हम है हम को जो फ़ से, नक्श-ए-पै-ए-मोर, है तौक़-ए-गर्दन तेरे कूचे से, कहाँ ताक़त-ए-रम है हम को जान कर कीजे तग़ाफुल, कि कुछ उम्मीद भी हो यह निगाह-ए-ग़लत अन्दाज़ तो सम है हम को रश्क-ए-हमतहि-ओ-दर्द -ए- असर-ए-बाँग-ए-हज़ीं नालः-ए-मुर्ग-ए-सहर, तेग़-ए-दुदम है हम को सर उड़ाने के जो वादे को मुकर्रर चाहा हँस के बोले कि, तिरे सर की क़सम है हम को दिल के खू करने की क्या वजह, वलेकिन नाचार पास-ए-बेरौनक्कि-ए-दीदः अहम है हम को तुम वह नाजुक, कि ख़मोशी को फुगाँ कहते हो हम वह 'आजिज़ , कि तगाफुल भी सितम है हम को क़तपः लखनऊ आने का बापिस नहीं खुलता, यानी हवस-ए-सैर-ओ-तमाशा, सो वह कम है हम को