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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१२६

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मक़त'-ए-सिलसिलः-ए-शौक़ नहीं है यह शह्र
'अज़्म-ए-सैर-ए-नजफ़-ओ-तौफ़-ए-हरम है हम को

लिये जाती है कहीं एक तवक़्क़ो'अ, ग़ालिब
जादः-ए-रह कशिश-ए-काफ़-ए-करम है हम को

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तुम जानो, तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
मुझको भी पूछते रहो, तो क्या गुनाह हो

बचते नहीं मुआख़ज:-ए-रोज़-ए-हश्र से
क़ातिल अगर रक़ीब है, तो तुम गवाह हो

क्या वह भी बेगुनह कुश-ओ-हक़ ना शनास हैं
माना कि तुम बशर नहीं, ख़ुर्शीद-ओ-माह हो

उभरा हुआ निक़ाब में है उनके, एक तार
मरता हूँ मैं, कि यह न किसी की निगाह हो

जब मैकदः छुटा, तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
मस्जिद हो, मद्रिसः हो, कोई ख़ानक़ाह हो

सुनते हैं जो बिहिश्त की ता'रीफ़, सब दुरुस्त
लेकिन ख़ुदा करे, वह तिरी जल्वःगाह हो