पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१२६

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मकत-ए-सिलसिलः-ए-शौक़ नहीं है यह शहर 'अज़्म-ए-सैर-ए-नजफ़-ओ-तौफ़-ए-हरम है हम को लिये जाती है कहीं एक तवको अ, गालिब जादः-ए-रह कशिश-ए-काफ़-ए-करम है हम को १२५ तुम जानो, तुम को रौर से जो रस्म-ओ-राह हो मुझको भी पूछते रहो, तो क्या गुनाह हो बचते नहीं मुबाख़ज: -ए- रोज़-ए-हश्र से कातिल अगर रक़ीब है, तो तुम गवाह हो क्या वह भी बेगुनह कुश-ओ-हक़ ना शनास हैं माना कि तुम बशर नहीं, ख़ुर्शीद-ओ-माह हो उभरा हुआ निकाब में है उनके, एक तार मरता हूँ मैं, कि यह न किसी की निगाह हो जब मैकदः छुटा, तो फिर अब क्या जगह की कैद मस्जिद हो, मद्रिसः हो, कोई ख़ानक़ाह हो सुनते हैं जो बिहिश्त की तारीफ़, सब दुरुस्त लेकिन ख़ुदा करे, वह तिरी जल्वःगाह हो