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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१३५

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लकद कोब-ए-हवादिस का तहम्मुल कर नहीं सकती
मिरी ताक़त, कि ज़ामिन थी बुतों के नाज़ उठाने की

कहूँ क्या ख़ूबि-ए-औज़ा'-ए- इबना-ए-ज़माँ, ग़ालिब
बदी की उसने, जिस से हमने की थी बारहा नेकी

१३८


हासिल से हाथ धो बैठ, अय आरज़ू ख़िरामी
दिल जोश-ए-गिरियः में है डूबी हुई असामी

उस शम्'अ की तरह से, जिसको कोई बुझा दे
मैं भी जले हुओं में, हूँ दाग़-ए-नातमामी

१३९



क्या तँग हम सितमज़दगाँ का जहान है
जिसमें कि एक बैज़:-ए-मोर आसमान है

है कायनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से
परतौ से आफ़ताब के, ज़र्रे में जान है

हालाँकि है यह सेलि-ए-ख़ारा से लालः रँग
ग़ाफ़िल को मेरे शीशे प मै का गुमान है