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ग़ालिब, तिरा अहवाल सुना देंगे हम उनको
वह सुन के बुला लें, यह इजारा नहीं करते
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घर में था क्या, कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
वह जो रखते थे हम इक हसरत-ए-ता'मीर, सो है
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ग़म-ए-दुनिया से, गर पाई भी फ़ुर्सत, सर उठाने की
फ़लक का देखना, तक़रीब तेरे याद आने की
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मकतूब का, यारब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने, काग़ज़ के जलाने की
लिपटना परनियाँ में शो'ल:-ए-आतश का आसाँ है
वले मुश्किल है हिकमत, दिल में सोज़-ए-ग़म छुपाने की
उन्हें मंज़ूर अपने जख़्मियों का देख आना था
उठे थे सैर-ए-गुल को, देखना शोख़ी बहाने की
हमारी सादगी थी, इल्तिफ़ात-ए-नाज़ पर मरना
तिरा आना न था, ज़ालिम, मगर तम्हीद जाने की