पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५९


दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रज़ामन्द कर गई

शक़ हो गया है सीनः, ख़ुशा लज़्ज़त-ए-फ़राग़
तकलीफ़-ए-पर्दः दारि-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर गई

वह बादः-ए-शबानः की सरमस्तियाँ कहाँ
उठिये बस अब, कि लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई

उड़ती फिरे है ख़ाक मिरी, कू-ए-यार में
बारे अब अय हवा, हवस-ए-बाल-ओ-पर गई

देखो तो, दिलफ़रेबि-ए-अन्दाज़-ए-नक़्श-ए-पा
मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी, क्या गुल कतर गई

हर बुल्हवस ने हुस्न परस्ती शि‘आर की
अब आबरु-ए-शेवः-ए-अह्ल-ए-नज़र गई

नज़्ज़ारे ने भी, काम किया वाँ निक़ाब का
मस्ती से हर निगह तिरे रुख़ पर बिखर गई

फ़रदा-ओ-दी का तफ़रिक़: यक बार मिट गया
कल तुम गये, कि हम प क़यामत गुज़र गई