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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१५१

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मारा ज़माने ने, असदुल्लाह खाँ, तुम्हें
वह वलवले कहाँ, वह जवानी किधर गई

१७०


तस्की को हम न रोयें, जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
हूरान-ए-ख़ुल्द में तिरी सूरत मगर मिले

अपनी गली में, मुझको न कर दफ़्न, बा'द-ए-क़त्ल
मेरे पते से खल्क़ को क्यों तेरा घर मिले

साक़ीगरी की शर्म करो आज; वर्नः हम
हर शब पिया ही करते हैं मै, जिस क़दर मिले

तुझसे तो कुछ कलाम नहीं, लेकिन अय नदीम
मेरा सलाम कहियो, अगर नामःबर मिले

तुमको भी हम दिखायें, कि मजनूँ ने क्या किया
फ़ुर्सत कशाकश-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ से गर मिले

लाज़िम नहीं, कि ख़िज़्र की हम पैरवी करें
माना कि इक बुज़ुर्ग हमें हमसफ़र मिले

अय साकिनान-ए-कूच:-ए-दिल्दार, देखना
तुमको कहीं जो ग़ालिब-ए-आशुफ़्तः सर मिले