पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१५१

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मारा जमाने ने, असदुल्लाह खाँ, तुम्हें वह वलवले कहाँ, वह जवानी किधर गई तस्की को हम न रोयें, जो जौक़-ए-नज़र मिले हूरान-ए-खुल्द में तिरी सूरत मगर मिले अपनी गली में, मुझको न कर दफ़्न, बाद-ए-क़त्ल मेरे पते से खल्क को क्यों तेरा घर मिले साक़ीगरी की शर्म करो आज; वनः हम हर शब पिया ही करते हैं मै, जिस क़दर मिले तुझसे तो कुछ कलाम नहीं, लेकिन अय नदीम मेरा सलाम कहियो, अगर नामःबर मिले तुमको भी हम दिखायें, कि मजनूं ने क्या किया फुर्सत कशाकश-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ से गर मिले लाजिम नहीं, कि खिज्र की हम पैरवी करें माना कि इक बुजुर्ग हमें हमसफ़र मिले अय साकिनान-ए-कूच :-ए-दिल्दार, देखना तुमको कहीं जो ग़ालिब-ए-आशुफ़्तः सर मिले