पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१५८

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फिर हुये हैं गवाह-ए-'प्रिश्न तलब अश्क बारी का हुक्म जारी है दिल-ओ-मिशगाँ का जो मुकद्दमः था आज फिर उसकी रूबकारी है

बेखुदी - बे. सबब नहीं, ग़ालिब
कुछ तो है, जिस की पर्दःदारी है

जुनूँ तोहमत कश-ए-तस्की न हो, गर शामानी की नमक पाश-ए-खराश-ए-दिल है, लज्जत जिन्दगानी की कशाकशहा-ए-हस्ती से करे क्या सनि-ए-याजादी हुई जजीर, मौज-ए-श्राब को फुर्सत रवानी की पस अज मुर्दन भी, दीवानः जियारत गाह-ए-तिफ्लाँ है शरार-ए-सँग ने तुर्बत प मेरी गुल फ़िशानी की निकोहिश है सजा, फ़रियादि-ए-बेदाद-ए-दिलबर की मबादा ख़न्दः-ए-दन्दाँ नुमा हो सुब्ह महशर की