पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१६१

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यों ही दुख किसी को देना नहीं खूब, वनः कहता कि मिरे 'अदू को, यारब, मिले मेरी ज़िन्दगानी जुल्मत कदे में मेरे, शब - ए - ग़म का जोश है इक शम् अ है दलील-ए-सहर, सो खमोश है ने मुशदः-ए-विसाल, न नज़ारः-ए-जमाल मुद्दत हुई, कि ग्राश्ति-ए-चश्म-यो-गोश है मै ने किया है, हुस्न-ए-ख़ुदयारा को, बेहिजाब अय शौक़, याँ इजाजत-ए-तस्लीम-ए-होश है गौहर को निक्द-ए-गर्दन-ए-ख़बाँ में देखना क्या ौज पर सितारः-ए-गौहर फ़रोश है दीदार बादः, हौसलः साक़ी, निगाह मस्त बड़म -ए- खयाल, मैकदः - ए- वेखरोश है क़त ग्रः श्रय ताजः वारिदान-ए-बिसात-ए-हवा-ए-दिल जिन्हार, अगर तुम्हें हवस-ए-नाय-यो-नोश है