पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१६८

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'अिश्रत-ए-सोहबत-ए-ख़बाँ ही ग़नीमत समझो न हुई, गालिब, अगर 'झुम्र-ए-तबी'श्री, न सही १७७ 'अजब नशात से, जल्लाद के, चले हैं हम, आगे कि अपने साये से सर, पाँव से है दो कदम आगे कजा ने था मुझे चाहा, ख़राब-ए-बादः-ए-उल्फत फ़कत ख़राब लिखा, बस न चल सका क़लम आगे ग़म-ए-ज़मान: ने झाड़ी, नशात-ए-'अिश्क की मस्ती वगरनः हम भी उठाते थे लज़्ज़त-ए-अलम, आगे खुदा के वास्ते, दाद इस जुनून-ए-शौक़ की देना कि उसके दर प पहुँचते हैं नामःबर से हम, आगे यह 'अम्र भर जो परीशानियाँ उठाई हैं, हम ने तुम्हारे आइयो, अय तुरःहा-ए-ख़म ब खम, आगे दिल-ओ-जिगर में परअफ़शाँ, जो एक मौजः-ए-ख़ है हम अपने जा ‘म में समझे हुये थे इसको, दम आगे क़सम जनाजे प आने की मेरे खाते हैं, गालिब हमेश : खाते थे जो, मेरी जान की क़सम, आगे