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ख़िज़्र सुलताँ को रखे, ख़ालिक़-ए-अकबर सरसब्ज़
शाह के बाग़ में, यह ताज़: निहाल अच्छा है
हम को मा'लूम है, जन्नत की हक़ीक़त, लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को, ग़ालिब, यह ख़याल अच्छा है
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न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली, न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो, तो यह भी न सही
ख़ार ख़ार-ए-अलम-ए-हस्रत-ए-दीदार तो है
शौक़, गुलचीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही
मै परस्ताँ, ख़ुम-ए-मै मुँह से लगाये ही बने
एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी, न सही
नफ़स-ए-क़ैस, कि है चश्म-ओ-चराग़-ए-सह्रा
गर नहीं शम'-ए-सियहख़ानः-ए-लैला, न सही
एक हँगामे प मौक़ूफ़, है घर की रौनक़
नौहः-ए-ग़म ही सही, नग़्मः-ए-शादी न सही
न सताइश की तमन्ना, न सिले की परवा
गर नहीं हैं मिरे अश'आर में मा'नी न सही