पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१७२

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मैं उन्हें छेड़ूँ, और कुछ न कहें
चल निकलते, जो मैं पिये होते

क़ेह्र हो,या बला हो,जो कुछ हो
काशके, तुम मिरे लिये होते

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी, यारब, कई दिये होते

आ ही जाता वह राह पर, ग़ालिब
कोई दिन और भी जिये होते

१८१


ग़ैर लें मह्फ़िल में, बोसे जाम के
हम रहें यों तश्नः लब, पैशाम के

ख़स्तगी का तुमसे क्या शिकवः कि यह
हथ्कण्डे हैं च़र्ख-ए-नीली फ़ाम के

ख़त लिखेंगे, गरचेः मतलब कुछ न हो
हम तो ‘आशिक़ हैं, तुम्हारे नाम के